हममें से ज्यादातर हिन्दू जितना शनि देव के नाम से डरते हैं, उतना शायद ही किसी और ग्रह या देवता से डरते हों। माना जाता है कि शनि देव न्याय के देवता हैं और व्यक्ति के बुरे कर्मों का फल देना उन्हीं का कार्य क्षेत्र है। लेकिन यह पूरी तरह सच नहीं है कि शनि देव केवल बुरे कर्मों का ही फल देते हैं, बल्कि सत्य तो यह है कि मनुष्य को अपने अच्छे और बुरे दोनों ही प्रकार के कर्मों का फल भुगतना पड़ता है।
लेकिन यदि आप पर शनि महाराज की किसी कारणवश कुदृष्टि पड़ ही गयी हो, तो फिर क्या हैं उससे बचने के उपाय? किस प्रकार शनिजी को प्रसन्न किया जा सकता है और उनकी कृपा प्राप्त की जा सकती है? शनिजी को प्रसन्न करने का एक आसान सा उपाय है शनिवार के दिन व्रत का पालन करना, जिसकी पूरी विधि हम आपको बताने जा रहे हैं।
शनि व्रत विधि
वैसे तो आप किसी भी शनिवार से शनि व्रत रख सकते हैं, पर श्रावण मास के शनिवार से प्रारम्भ किया जाने वाला शनि व्रत अत्यधिक लाभकारी एवं मंगलकारी माना जाता है। इस व्रत को करने के लिए शनिवार के दिन प्रात:काल ब्रह्म मुहूर्त में स्नानादि से निवृत्त हो, शनिदेव की प्रतिमा के समक्ष विधिवत पूजा करनी चाहिए।
पूजन के लिए काला तिल, धूप-दीप, तेल, काला वस्त्र, उड़द, नीले लाजवन्ती के पुष्पों की माला आदि सामग्रियों का प्रयोग करना चाहिए। इसके पश्चात् शनि देव के नाम से दीपोत्सर्ग कर शनिस्त्रोत का पाठ करना चाहिए।
शनिदेव की पूजा के पश्चात राहु और केतु की पूजा करने, चींटियों को आटा खिलाने, पीपल में जल देकर एवं सूत्र बांधकर सात बार परिक्रमा करने का विशेष महत्व है।
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शनि व्रत कथा
एक समय ब्रह्माण्ड में स्थित नौ ग्रह के मध्य इस बात पर विवाद छिड़ गया कि उन सबमें सबसे बड़ा कौन है? तब इंद्रदेव ने उन्हें सुझाव दिया कि धरती पर रहने वाले न्यायप्रिय राजा विक्रमादित्य इस समस्या का हल निकालने में समर्थ हैं। तब समस्त ग्रह विक्रमादित्य के पास गए और उन्हें अपनी समस्या सुनाई।
चित्र: Hinduism Today
राजा विक्रमादित्य ने इस समस्या के निदान की एक योजना बनाई। उन्होंने नौ अलग-अलग धातुओं सोना, चांदी, कांस्य, पीतल, सीसा, जस्ता, अभ्रक, रांगा और लोहे से निर्मित सिंहासन मंगवाकर प्रत्येक ग्रह को उनमें से एक पर बैठने को कहा और यह कहा कि जो सबसे बाद में सिंहासन पर बैठेगा वह सबसे छोटा माना जाएगा।
सभी ग्रहों के विराजित होने के पश्चात् अंतिम लोहे का सिंहासन शनिदेव को मिला और शनिदेव को नौ ग्रहों में सबसे छोटा बताया गया। यह देख शनिदेव राजा विक्रमादित्य से कुपित हो गए और उन्हें दारुण दुःख प्राप्त होने का श्राप देते हुए वहां से चले गए।
कुछ समय पश्चात राजा विक्रमादित्य पर शनिदेव की साढ़े साती शुरू हो गई, जिसके प्रभाव से एक दिन जब राजा शिकार को गए तो उनका घोड़ा वन में रास्ता भटक गया। राजा विक्रमादित्य शनिदेव की माया से साढ़े सात वर्षों तक अनेक कष्टों को झेलते हुए भूखे-प्यासे जंगल-जंगल और दर-दर भटकते रहे।
तब उन्होंने शनिदेव का विधिवत व्रत एवं पूजन किया। उनके पूजन से प्रसन्न हो शनिदेव ने उनपर अपनी कृपादृष्टि बरसाई। इसके प्रभाव से वह जिस नगर में रुके हुए थे, वहाँ के राजा ने विक्रमादित्य से प्रसन्न हो, विक्रमादित्य से आग्रह किया वे उनकी कन्या से विवाह कर उसे सहर्ष स्वीकार करें ।
विक्रमादित्य विवाह संपन्न कर उज्जैन नगरी को चले, जहाँ नगर वासियों ने बड़ी धूम-धाम से उनका स्वागत किया और सारे नगर में राजा के लौटने के ख़ुशी में दीपोत्सव मनाया गया ।
तब से सम्पूर्ण राज्य में शनिदेव की पूजा और कथा नियमित रूप से पूर्ण विधि-विधान से होने लगी। शनिदेव की कृपा से राजा विक्रमादित्य सहित समस्त प्रजा खुशी और आनंद के साथ जीवन बिताने लगी।
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राजा विक्रमादित्य की भांति जो भी व्यक्ति पूरी श्रद्धा से शनि व्रत को करता है, उसके सारे दुःख दूर हो जाते हैं। शनि व्रत शनि महाराज को प्रसन्न करने वाला एवं अत्यधिक फलदायी माना जाता है।
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