ओड़िसा के पुरी ज़िले में स्थित भगवान जगन्नाथ का मंदिर पूरे विश्व में प्रसिद्ध है।
चारों धामों में से एक, इस धाम ने न सिर्फ़ देश भर के श्रद्धालुओं को अपनी और खींचा है, अपितु पूरे विश्व भर के श्रद्धालुओं की भीड़ को यहाँ अपनी ओर आकर्षित किया है। कहा जाए तो, यह सिर्फ भगवान जगन्नाथ की ही महिमा है, जो छप्पन भोग का प्रसाद किसी के लिए भी कम नहीं पड़ता है।
इस मंदिर में भगवान जगन्नाथ अपने भाई बलभद्र और अपनी बहन सुभद्रा के साथ विद्यमान हैं। मंदिर में दर्शन करने वाले भक्तों ने ही देखा है, कि भगवान की मूर्तियों के हाथ नहीं हैं। इस मंदिर के निर्माण का एक इतिहास है, भगवान की अधूरी मूर्तियों का भी इतिहास है। आइए, जानते हैं, कि आखिरकार क्यों जगन्नाथ पुरी के मंदिर की मूर्तियों में भगवान के हाथ क्यों नहीं हैं।
भगवान की मूर्तियों के हाथ न होने के विषय में जनसामान्य के मध्य बहुत सारी किस्से-कहानियाँ एवं लोककथाएँ प्रचलित हैं। हालांकि, इन कथाओं की सच्चाई का कोई लिखित प्रमाण तो उपलब्ध नहीं है, परंतु ऐसी एक लोककथा है, जो लोगों के बीच प्रचलित है।
एक बार मालवा के राजा इंद्रद्युम्न को स्वप्न में भगवान विष्णु ने समुद्र तट पर जाने का और वहाँ पर मिलने वाले एक लकड़ी के हिस्से से भगवान की मूर्ति का निर्माण करने का आदेश दिया। राजा ने हु-ब-हु वैसा ही किया।
उस समय देवशिल्पी विश्वकर्मा वहाँ वेश बदलकर आए और राजा से मूर्ति निर्माण के लिए एक महीने की मोहलत मांगी और जिस कमरे में वो मूर्ति का निर्माण करेंगे, उस कमरे में किसी के प्रवेश न करने की शर्त रखी थी, जिस पर राजा ने मंजूरी भी दी थी।
लेकिन एक महीने की समाप्ति के कुछ दिन पहले ही उस कमरे से आवाजें आनी बंद हो गई। राजा ने इस चिंता में उस कमरे का दरवाजा खोल कर देखा, कि कहीं वृद्ध शिल्पी को कुछ हो न गया हो। परंतु उस कमरे में सिवाय तीनों भगवान की अधूरी मूर्तियों के कुछ भी नहीं था।
राजा उनकी शर्त को याद कर काफी दुःखी हुए। उसी समय एक आकाशवाणी हुई कि यह सब भगवान की इच्छा से हुआ है। अगर देव विश्वकर्मा चाहते तो एक-एक कर मूर्तियों का निर्माण कर सकते थे।
पर उन्होंने ऐसा न करके तीनों ही मूर्तियों का अधूरा निर्माण किया है एवं इन्ही मूर्तियों को मंदिर ले जाकर स्थापित करने की आज्ञा दी। तब से भगवान इसी रूप में पूजे जाने लगे।
एक और लोककथा के अनुसार, एक बार माता देवकी भगवान कृष्ण की सभी रानियों को राधा और कृष्ण की कथा सुना रही थीं। स्वयं भगवान श्री कृष्ण, बलराम और सुभद्रा छिपकर सुन रहे थे। कथा सुनने में तीनों इतने तल्लीन हो गए कि मूर्तिवत वहीं ऐसे खड़े रहे मानो उनके हाथ ही न हों। कहा जाता है, नारद मुनि ने इच्छा प्रकट की, कि जिस मनोरम रूप को उन्होंने देखा है, उसे पूरा संसार भी देखे।
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