ईरान की शराब और ईरानी कालीन के बारे में तो आप जानते ही होंगे। लेकिन क्या आप जानते हैं की जिस जयपुरी झुमकी को आपने शान से पहना है वो भी ईरान की ही ईजाद है। जी हाँ, मीनाकारी कला की गंगोत्री वास्तव में ईरान की सांस्कृतिक धरोहर है। मीनाकारी गहने, बर्तन और सजावट की चीजें हमेशा से कला प्रेमियों की पहली पसंद रहे हैं। तरह-तरह के चमकीले रंगों से फ़ूल-पत्तों और मोर, चिड़िया आदि की आकृतियाँ बनाना मीनाकारी कला की पहचान रही है। मीनाकारी कला का जन्म, विस्तार और प्रचलन के बारे में आइये थोड़ा और जानते हैं :
मीनाकारी का संसार में आगमन और विस्तार :
मीनाकारी कला का जन्म -इतिहास की जड़ें ईरान में दिखाई देती हैं। हिस्टोरियंस की मानें तो मीनाकारी कला का जन्म 1500 वर्ष ई.पू. के आस-पास हुआ था। जन्म के समय इस कला को ‘आग एवं राख़ ’ हुनरे-दिरख़शाने-अतिशो-खाक के नाम से जाना गया। मिट्टी, चित्रकारी और आतिश यानि आग का बहुत खूबसूरत संगम है मीनाकारी कला। ईरान से निकली मीनाकारी की गंगा यूनान होते हुए विश्व के दूसरे हिस्से में भी पहुँच गयी। लगभग 17 वीं शताब्दी में आभूषण कला के रूप में यह प्रसिद्ध हुई। इस समय के आभूषणों के निर्माण पर यूनान, फारसी और रोमन शैली का प्रभाव था। एशिया में मीनाकारी कला के वाहक मंगोल शासक थे और मुगल शासकों ने उनकी सहायता करी । भारत में मीनाकारी का दरवाजा लाहौर से खुला । भारत में मीनाकारी के लिए मशहूर जयपुर महाराजा मानसिंह प्रथम लाहौर से लेकर आए थे। जयपुर के अलावा राजसमंद, कोटा, बीकानेर, नाथद्वारा, प्रतापगढ़ भी मीनाकारी के लिए प्रसिद्ध है।
अपने शुरुआती दौर में मीनाकारी कला का उपयोग वैसे तो अधिकतर तांबे पर किया जाता था लेकिन सोने, चाँदी और पीतल में भी इस कला ने अपना रूप खूब निखारा था। आभूषण निर्माण के लिए सिर्फ सोने का ही उपयोग किया गया क्यूंकी केवल सोना ही था जो इस कला में इस्तेमाल किए जाने वाले इनेमल पेंट के पिघलने के बाद भी काला नहीं होता था। चाँदी और तांबा यह आंच नहीं सह सकते थे इसलिए बारीक कला के लिए सोना ही चुना गया।
भारत में चाँदी के आभूषणों के अलावा खिलौनों, बर्तनों, काँच, ऊँट की खाल आदि पर भी यह काम किया जाता है।
मीनाकारी का रूप:
मीनाकारी को तीन रूपों में देखा जा सकता है। केवल सोने में सुंदर चित्रकारी के संग रची बसी रचना “एक रंग खुला मीना” कहलाती है। हरा, हल्का और गहरा नीला, सफेद और लाल रंगों में रची कविता जैसे कला “पंच रंगी मीना” कहलाती है। गुलाबी रंग में छटा निखारती कला को “गुलाबी मीना” कहलाती है।
मीनाकारी में विशेष क्या है:
मीनाकारी की विशेषताओं में न केवल इसका आलीशान इतिहास विशेष है बल्कि और भी अनेक तथ्य हैं जो इसे दूसरी कला से अलग करते हैं। आइये ज़रा देखें वो क्या विशेष तथ्य हैं :
1.मीनाकारी कला की जन्म भूमि ईरान है जहां 1500 ई. पू. के आस-पास इस कला के सबूत पाये जाते हैं।
2.इस कला को बढ़ावा देने में मंगोल और मुगल शासकों का बहुत बड़ा सहयोग है ।
3.भारत में मीनाकारी आई मुगल रानियों के गहनों के रूप में और राजस्थान का दरवाजा राजा मानसिंह प्रथम ने इस कला के लिए खोला।
4.यह एक प्रयोगशाला कला है। अन्य कलाओं की भांति इसे केवल अभ्यास से ही न तो सीखा जा सकता है और न ही किया जा सकता है। रासायनिक प्रक्रिया के द्वारा इस कला का निर्माण किया जाता है।
5.मीनाकारी कला के निर्माण में मिट्टी, चित्रकारी और आग का बहुत सुंदर प्रयोग किया जाता है।
6.मीनाकारी के काम में विशेष दक्षता की जरूरत होती है जिसे कई कुशल कारीगरों के हाथों से गुजरना पड़ता है। इसकी निर्माण कला आज भी 500 वर्ष पुरानी रीति कर प्रयोग करती है।
7.नक्काशी करने वाले इसका डिजाइन तैयार करते हैं, सुनार इस डिजाइन को आभूषण के रूप में ढलते हैं, और अंतिम रूप में कलमकार इसका रूप निखरते हैं। पॉलिश करने वाले इसपर चमक लाते हैं और मीनाकार पूरी कला को मनचाहे और चटक रंगों से इसकी शोभा निखारते हैं।
8.केवल आभूषणों ही नहीं बल्कि जड़ाऊ डिब्बे, बर्तन, मूर्तियाँ, डाइनिंग सेट, ट्रे, चाबी के गुच्छे और यहाँ तक दीवारों और दरवाजों पर भी मीनाकारी की छटा उकेरी जाती है।
9.राजस्थान के अलग-अलग शहर, कागज, काँच,संगमरमर, गहने,पीतल,स्टील और सोने के तार और चाँदी पर मीनाकारी के लिए प्रसिद्ध हैं।
10.सिंधु घाटी सभ्यता से लेकर आधुनिक काल तक मीनाकारी कला की सुंदरता और बनावट में कोई अंतर नहीं आया है।
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