भगवान जगन्नाथ को प्रभु श्री कृष्ण के अवतार के रूप में पूजा जाता है। ओडीशा राज्य के तटवर्ती शहर पुरी में भगवान श्री जगन्नाथ का विशाल मंदिर स्थित है। श्री जगन्नाथ मंदिर को हिंदू धर्म में चार धामों में से एक माना जाता है। यहां प्रति वर्ष प्रभु श्री जगन्नाथ की भव्य रथ यात्रा आयोजित की जाती है जिसमें लगभग दस लाख से अधिक श्रद्धालू भाग लेते हैं।
श्री जगन्नाथ रथ यात्रा हमारे देश के महत्वपूर्ण धार्मिक उत्सवों में से एक है। यह त्यौहार अपने आप में एक अनूठा पर्व है क्योंकि इस अवसर पर तीन हिंदू देवता भगवान श्री जगन्नाथ, उनके बड़े भाई श्री बलभद्र और उनकी छोटी बहन देवी सुभद्रा एक रंगारंग जुलूस में उनके भक्तों से मिलाने के उद्देश्य से अपने मंदिर के बाहर लाए जाते हैं और उनकी मौसी के घर स्थित दूसरे मंदिर में ले जाए जाते हैं जहां वे 9 दिनों तक रहते हैं।
यह विश्व की प्राचीनतम रथयात्रा मानी जाती है। यह रथयात्रा हिंदू चंद्र मास के अनुसार आषाढ़ माह में शुक्ल पक्ष की द्वितीया तिथि को जगन्नाथ पुरी से प्रारंभ होती है और एकादशी को समाप्त होती है। इस यात्रा का उल्लेख हिंदुओं के पवित्र ग्रंथों ब्रह्म पुराण, पद्म पुराण, स्कंद पुराण और कपिल पुराण में मिलता है जो कुछ हजार वर्ष पहले लिखे गए थे।
इस वर्ष यह रथयात्रा 23 जून को निकलेगी। इस वर्ष कोविड-19 के प्रकोप के चलते इस सप्ताह माननीय सुप्रीम कोर्ट ने एक जनहित याचिका की सुनवाई करते समय 23 जून को निकलने वाली इस रथ यात्रा को रोकने के आदेश दिए हैं। माननीय चीफ जस्टिस ने कहा कि यदि उन्होंने इस वर्ष रथ यात्रा की अनुमति दी तो भगवान जगन्नाथ उन्हें कभी क्षमा नहीं करेंगे। सुप्रीम कोर्ट के अनुसार महामारी के मध्य ऐसी यात्रा की अनुमति नहीं दी जा सकती जिस में असंख्य लोगों की भीड़ इकट्ठी होती हो। लोगों के स्वास्थ्य और उनकी सुरक्षा के लिए इस वर्ष यात्रा आयोजित नहीं की जानी चाहिए।
इस निर्णय पर पुनर्विचार के लिए एक याचिका दायर की गई है जिसमें मांग की गई है कि 23 जून को पूरे शहर को पूरी तरह से बंद कर दिया जाए। किसी को भी घर से निकलने की इजाज़त ना हो। मंदिर में 1172 सेवक है। इन सभी का कोविड 19 टेस्ट नेगेटिव आया है। तीनों रथ खींचने के लिए 750 लोगों की जरूरत होती है। मंदिर के 1172 सेवक तीनों रथों को खींचकर गुंडिचा मंदिर तक ले जा सकते हैं। इस प्रकार यह रथयात्रा बिना बाहरी लोगों को इसमें शामिल किए निकाली जा सकती है। अब देखना यह है कि इन परिस्थितियों में रथयात्रा निकल पाती है या नही?
श्री जगन्नाथ रथ यात्रा के निकलने के कारणों की पृष्ठभूमि में विभिन्न विद्वानों और भक्तों के अलग-अलग मत हैं।
एक आधुनिक मत के अनुसार जब राजा रामचंद्र देव ने एक यवन स्त्री से विवाह बंधन में बंध इस्लाम धर्म अपना लिया तो उनके लिए मंदिर में प्रवेश करना वर्जित हो गया। वह भगवान श्रीजगन्नाथ के एक समर्पित भक्त थे। अतः उन्हें श्री जगन्नाथ के दर्शन कराने के प्रयोजन से यह यात्रा निकाली जाने लगी।
रथयात्रा के आरंभ होने की पृष्ठभूमि में मौजूद पौराणिक मत के अनुसार स्नान पूर्णिमा अर्थात ज्येष्ठ पूर्णिमा के दिन भगवान श्री जगन्नाथ इस धरा पर अवतरित हुए थे। उस दिन उनके जन्मदिन के उपलक्ष में श्री जगन्नाथ को अग्रज श्री बलराम एवं बहन देवी सुभद्रा सहित रत्न सिंहासन से उतारकर मंदिर के निकट स्थित स्नान मंडप में ले जाया जाता है। उन्हें 108 कलशों से शाही स्नान कराया जाता है। कहा जाता है कि इस स्नान के उपरांत भगवान जगन्नाथ रुग्ण होकर ज्वर से पीड़ित हो जाते हैं।
तब भगवान जगन्नाथ को 15 दिनों की अवधि के दौरान ओसर घर कहे जाने वाले एक विशेष कक्ष में रखा जाता है। इस पंद्रह दिनों की अवधि में मंदिर के मुख्य सेवकों और वैद्यों के अतिरिक्त भगवान श्री जगन्नाथ के दर्शन और कोई नहीं कर सकता। इस अवधि में मंदिर में श्री जगन्नाथ के प्रतिनिधि अलारनाथजी की मूर्ति की स्थापना की जाती है और उनकी उपासना की जाती है।
भगवान श्रीजगन्नाथ एक पखवाड़े के बाद स्वास्थ्य लाभ कर कक्ष के बाहर आते हैं और भक्तों को उनके दर्शन का अवसर मिलता है। उस दिन को नव यौवन नैत्र उत्सव के नाम से भी जाना जाता है। इसके उपरांत द्वितीया के दिन प्रभु श्री कृष्ण और अग्रज श्री बलराम एवं बहन देवी सुभद्रा के साथ बाहर राजमार्ग पर आते हैं और रथ पर आसीन होकर नगर का भ्रमण करते हैं ।
कुछ लोगों के अनुसार जब श्री कृष्ण की बहन देवी सुभद्रा अपने मायके आती हैं और अपने भाइयों के समक्ष अपने नगर भ्रमण की इच्छा जाहिर करती हैं, तब श्री कृष्ण, श्री बलराम देवी सुभद्रा के साथ रथ में आसीन होकर नगर भ्रमण के लिए जाते हैं। कहा जाता है कि रथयात्रा का उत्सव इसी के बाद से प्रारंभ हुआ।
यह भी कहा जाता है कि गुंडिचा मंदिर में स्थित देवी भगवान कृष्ण की मौसी हैं जो तीनों भाई बहनों श्री कृष्ण, श्री बलराम और देवी सुभद्रा को अपने घर आने के लिए आमंत्रित करती हैं। अतः तीनों अपनी मौसी के घर 10 दिनों की अवधि में वहां रहने जाते हैं।
भगवान श्री कृष्ण के मामा कंस उन्हें मथुरा बुलाते हैं जिसके लिए कंस सारथी के साथ गोकुल अपना रथ भिजवाता है। कहा जाता है कि श्री कृष्ण अपने भाई बहन के साथ रथ में आसीन होकर मथुरा जाते हैं जिसके उपरांत रथ यात्रा उत्सव प्रारंभ हुआ।
एक अन्य मतानुसार इस दिन भगवान श्री कृष्ण कंस को मारकर बलराम के साथ अपनी प्रजा को दर्शन देने के लिए मथुरा में रथ यात्रा करते हैं।
एक अन्य कथा के अनुसार कृष्ण की रानियां माता रोहिणी से उनकी रासलीला के विषय में उन्हें बताने को कहती हैं। माता रोहिणी सोचती हैं कि गोपियों के साथ कृष्ण की रासलीला के विषय में देवी सुभद्रा को नहीं जानना चाहिए। अतः वह उन्हें श्री कृष्ण और बलराम के साथ रथ यात्रा पर भेज देती है। मुनि नारद आते हैं और तीनों भाई बहनों के को देख कर खुश हो जाते हैं और ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि ऐसे ही इन तीनों के दर्शन प्रत्येक वर्ष होते रहें। उनकी यह इच्छा पूरी हो जाती है और इसके अनुरूप रथयात्रा के द्वारा इन तीनों के दर्शन सबको होते रहते हैं।
श्री जगन्नाथ पुरी रथयात्रा में सम्मिलित होने वाले रथों का निर्माण अक्षय तृतीया के दिन से प्रारंभ हो जाता है। ये रथ लकड़ी से बनाए जाते हैं। इन्हें प्रत्येक वर्ष नए ढंग से बनाया जाता है। इन के निर्माण में अनेक लोगों की मेहनत छिपी होती है। इन की भव्य सजावट की जाती है।
16 पहियों के इस रथ की ऊंचाई पर 45 फीट होती है। पूरे रथ को लाल व पीले रंग के वस्त्र से सजाया जाता है और उसकी रक्षा का उत्तरदायित्व गरुड़ पर होता है। इस रथ को दारूका संचालित करता है। रथ के ऊपर त्रैलोक्य मोहिनी कहा जाने वाला झंडा लहराता है। यह रथ 4 घोड़ो द्वारा खींचा जाता है। इस रथ में श्री कृष्ण, गोवर्धन, वर्षा नरसिंघा, राम, नारायण, त्रिविक्रम, हनुमान व रूद्र आसीन रहते हैं। इसे शंख चुडा नागनी नामक रस्सी से खींचा जाता है।
14 पहियों वाले इस रथ की ऊंचाई 43 फीट होती है। इस की सजावट लाल नीले हरे रंग के वस्त्रों से की जाती है। इसकी रक्षा का दायित्व वासुदेव के कंधों पर होता है। इसे मताली नाम का सारथी संचालित करता है और इसमें गणेश, कार्तिक, सर्वमंगला, प्रलांबरी, हटायुध्य, मृत्युंजय, नातांवारा , मुक्तेश्वर और शेषदेव आसीन रहते हैं और इस पर उनानी कहलाने वाला झंडा लहराता है। इसे बासुकी नागा नामक रस्सी से खींचा जाता है।
12 पहियों के इस रथ की ऊंचाई 42 फीट होती है। काले एवं लाल रंग के वस्त्रों से इस की सजावट की जाती है। इस रथ का संचालन अर्जुन करते हैं और इस पर नंद्विक झण्डा लगा हुआ होता है। इस रथ में मंगला, श्यामकली, वाराही, शुलिदुर्गा, वन दुर्गा, चामुंडा, चंडी और उग्रतारा आसीन रहती है। यह रथ स्वर्णाचुड़ा नागनी नामक रस्सी से खींचा जाता है।
ये तीनों रथ हजारों लोगों द्वारा खींचे जाते हैं। हर कोई एक बार इस रथ को अवश्य खींचना चाहता है क्योंकि यह माना जाता है एक बार इसे खींचने से उन्हें सौ यज्ञों के समान पुण्य लाभ मिलता है और उनकी मनोकामना अवश्य पूरी होती है। इस से मोक्ष की प्राप्ति होती है। इसी समय श्री जगन्नाथ के दर्शन नजदीक से किए जा सकते हैं।
गुंडिचा मंदिर में रथ के पहुंचने के उपरांत तीनों मूर्तियों की स्थापना मंदिर में की जाती है। तीनों प्रतिमाओं को एकादशी तक वहीं रखा जाता है। इस अवधि में पुरी में मेला लगता है। अनेक प्रकार के आयोजन होते हैं। भक्तों में महा प्रसाद वितरित किया जाता है।
जब एकादशी के दिन तीनों मूर्तियों को वापस अपने मंदिर लाया जाता है असंख्य भक्तों की भीड़ इकट्ठी होती है। यह दिन बहुडा के नाम से जाना जाता है।
तीनों प्रतिमाओं की स्थापना अपने-अपने मंदिर के गर्भ गृह में की जाती है। पूरे वर्ष में मात्र एक बार इन प्रतिमाओं को उनके स्थान से हटाया जाता है।
देश विदेश में अनेक स्थानों पर रथ यात्रा आयोजित की जाती है। हमारे देश के अनेक मंदिरों में श्री कृष्ण की मूर्ति को पूरे नगर में भ्रमण कराया जाता है। विदेशों में इस्कॉन मंदिर रथ यात्रा आयोजित करता है। 100 से भी अधिक विदेशी नगरों में रथयात्रा बड़ी धूमधाम से आयोजित की जाती है। कैलिफोर्निया, टोरंटो, पेरिस, लंदन, डबलिन, मेलबर्न जैसे शहरों में रथयात्रा बड़ी धूमधाम से आयोजित की जाती है। बांग्लादेश में भी वहां के हिंदू समुदाय द्वारा इस उत्सव का आयोजन बेहद हर्षोल्लास एवं श्रद्धा भाव से किया जाता है।
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