साड़ी भारतीय सांस्कृतिक परम्परा की पहचान है। देश के विभिन्न प्रान्तों की भगौलिक स्थिति एवं पारंपरिक मूल्यों के आधार पर साड़ियों की विशेषता में अंतर पायी जाती है जैसे –
उत्तर प्रदेश की बनारसी साड़ी, तांची, जामदानी, जामवर, उड़ीसा की बोमकई, राजस्थान की बन्धेज, मध्य प्रदेश की चंदेरी, महेश्वरी एवं मधुबनी छपाई, गुजरात की गठोला, पटौला, बिहार की टसर, काथा, झारखंड की कोसा रेशम, दिल्ली की रेशमी साड़ियाँ, तमिलनाडू की कांजीवरम, पश्चिम बंगाल की बालुछरी, कांथा टंगैल और महाराष्ट्र की पैठनी साड़ियाँ प्रसिद्ध हैं।
ये सभी प्रकार की साड़ियाँ देश के विभिन्न प्रदेशों की विशिष्टता की गौरव गाथा का प्रमाण देती हैं। आज हम महाराष्ट्र की विशिष्ट एवं लगभग 2000 वर्षों से चली आ रही पारंपरिक साड़ी पैठनी की गौरव गाथा आपके साथ साझा करेंगे।
पैठनी साड़ी का उद्गम:
पैठनी साड़ी का उद्गम स्थल महाराष्ट्र के औरंगाबाद जिले से 50 किलोमीटर दूर स्थित एक छोटे से शहर पैठन से हुआ था। इसी शहर के नाम पर इस साड़ी का नाम पैठनी पड़ा। मराठी भाषा में पैठनी को पैठणी कहते है।
यह एक विशिष्ट प्रकार की साड़ी होती है – जिसे बनाने की प्रेरणा अजंता एलोरा की गुफाओं में की गई चित्रकारी से मिली थी। जो महीन सिल्क और सोने की तार से हथकरघा पर बुन कर तैयार की जाती है; जिसकी लम्बाई अन्य प्रदेश की साड़ियों से लगभग दो गज ज्यादा अर्थात नौ गज होती है।
पैठनी साड़ी की विशेषता:
प्रारंभ में पैठनी साड़ी महीन सूती कपड़े पर सिल्क के बॉर्डर से डिजाईन बनाकर तैयार की जाती थी। वक्त बदलने के साथ हीं इसमें सूती कपड़े की जगह सिल्क का प्रयोग होने लगा। किन्तु इसकी डिजाईन में आज भी कोई बदलाव नहीं किया गया है।
पैठनी साड़ी रेशम और सोने के तार से बुनकर महाराष्ट्र के कुशल बुनकरों द्वारा तैयार की जाती है। हथकरघे पर बुने जाने के कारण इसकी विशिष्टता में चार चाँद लग जाता है क्योंकि एक डिजाईन की केवल एक ही साड़ी होती है। पारंपरिक पैठनी साड़ी बनाने में लगभग डेढ़ से दो महीना या एक साल तक का वक्त लग जाता है और इसकी कीमत ₹ 7,000 – 8,000 से शुरू होती है।
पैठनी साड़ी की बनावट:
इस साड़ी के निर्माण में तीन प्रकार के सिल्क धागे का प्रयोग किया जाता है।
• गट्टा : महीन सिल्क धागा होता है।
• चायना : इसकी कीमत अधिक होती है।
• चरखा : ये धागा सस्ता होने के कारण ज्यादा प्रयोग किया जाता है।
साड़ी बनाने के लिए प्रयुक्त होने वाले कच्चे सिल्क के धागों के कास्टिक सोडा से भली- भाँती साफ़ किया जाता है। इसके बाद सावधानीपूर्वक धागों को सुलझाया जाता है। फिर साड़ी को तैयार करने के लिए सोने के धागे को सूरत शहर से लाकर बुनाई की कार्यवाही प्रारंभ की जाती है।
पैठनी साड़ी पर बनाई जाने वाली कलाकृतियाँ:
पूरी साड़ी पर छोटी -छोटी कलाकृतियां बनी होती हैं जैसे- फूल, पत्ते, चाँद, कोण आदि। अजंता की गुफाओं से प्रेरित होने के कारण पैठनी साड़ियों में बौध धर्म की झलक स्पष्ट देखी जा सकती है जैसे – कमल के फूल पर बैठे भगवान बुद्ध का चित्र, मोर, पंछी , अशर्फी का चित्र, हंस, तोता-मैना, अमरबेल।
पल्लू का डिजाईन:
ज्यामीतीय फूलों की क्लाकृति, गुलदस्ते में फुल या पौधा, मोर, ज्यामीतीय डिजाईन (geometric patterns)।
पैठनी साड़ी की रंगाई एवं पारंपरिक रंग:
पैठनी साड़ी को तैयार करने से पहले रेशम के कच्चे धागों की रंगाई का काम नासिक – औरंगाबाद राजमार्ग पर नासिक से 83 किलोमीटर दूर स्थित येओला शहर के बुनकरों द्वारा किया जाता है।
एक किलो रेशम के कच्चे सूत की रंगाई के लिए 20 से 30 ग्राम रंग का प्रयोग किया जाता है। इन सूतों की रंगाई एवं ब्लीचिंग के लिए ताम्बे के बर्तन का प्रयोग होता है। फिर इन रेशमी धागों को नर्म करने के लिए नारियल तेल का प्रयोग किया जाता है।
पैठनी साड़ी को इन पारंपरिक रंगों में हीं रंगा जाता है:
पीला, लाल, आसमानी नीला, मर्जेंटा, मोतीया, नारंगी,पर्ल पिंक, पीच पिंक, पीकॉक ब्लू/ग्रीन, धानी रंग, वायलेट रेड, सफ़ेद एवं काला ।
फोटो श्रेय: Konstantin von WedelStaedt
पैठनी साड़ी का इतिहास:
पैठनी साड़ी भारत के महाराष्ट्र प्रान्त की 2000 वर्षों से भी ज्यादा की पारंपरिक विरासत को संजोये हुए है। इसकी उत्पत्ति दो सौ ईसा पूर्व (200 BCE) सातवाहन वंश के राजाओं की छत्रछाया में हुई थी।
दरअसल सातवाहन वंश के राजा भारतीय इतिहास में पहले शासक थे, जिन्होंने साड़ियों के निर्यात के व्यापार से मुद्रा अर्जित करने की योजना बनाई थी और अपनी योजना को कार्यरूप में परिणित करने के लिए भारतीय परिधान साड़ी के विषय में विदेशियों की राय और पसंद की जानकारी एकत्र करने हेतु राजदूत भेजे थे।
यूनेस्को की जानकारी के अनुसार “सबसे पहले स्वर्ण और रेशम से बुन कर तैयार की गयी पैठनी साड़ी को इसके भार के बराबर स्वर्ण के बदले रोम के हाँथ बेचा गया था।”
सातवाहन वंश के बाद पैठनी साड़ी की विलुप्त होती विरासत के पुनरुत्थान का श्रेय 17 वीं शताब्दी के मुगल शासक औरंगजेब को जाता है। जिसने अपने शासनकाल में पैठनी में फूल की आकृति का समावेश करवाया और इस भारतीय परिधान की सांस्कृतिक विरासत पैठनी साड़ी को राजवंशियों के लिए स्थापित करके इसकी गरिमा को बनाये रखा।
मुग़ल काल के पतन के पश्चात पैठनी साड़ी को पुणे के पेशवाओं की छत्रछाया में संरक्षण प्राप्त हुआ। पेशवाओं ने पैठनी साड़ी के कारीगरों को शिर्डी के पास एक छोटे शहर में स्थापित किया। किन्तु राजकीय संरक्षण के अभाव में पैठनी साड़ी की सदियों पुरानी विरासत धीरे -धीरे पतन के गर्त में गिरने लगी।
फिर वर्ष 2016 में केन्द्रीय सरकार और महाराष्ट्र सरकार के संयुक्त प्रयास के द्वारा विलुप्त होती पैठनी साड़ी के गौरवपूर्ण विरासत को संरक्षित करने का प्रयास आरंभ हुआ।
महाराष्ट्र के बुनकरों के साथ मिलकर इसके बुनाई के लिए प्रयास प्रारंभ किया जा रहा है और भारतीय सांस्कृतिक विरासत के इस नायाब धरोहर को आने वाली पीढ़ियों के लिए संरक्षित करने के उद्देश्य से इसके व्यापार की ओर ध्यान केन्द्रित करने की योजनायें बनाई जा रहीं हैं।
पैठनी साड़ी के साथ भारतीय सांस्कृति के वैभवपूर्ण इतिहास का एक विस्तृत काल- खंड जुड़ा हुआ है। हो सकता है कालान्तर में आधुनिक तकनीकी बहाव में इसे तैयार किये जाने की पारंपरिक विधियाँ विलुप्त हो जाए।
ये भी संभव है कि जहाँ एक साधारण पैठनी साड़ी को हथकरघे से तैयार करने में डेढ़ से दो महिना और ज्यादा कढाईयुक्त राजशाही पैठनी साड़ी तैयार करने में एक साल का वक्त लगता है। वहाँ तकनिकी प्रयोग के द्वारा इतनी समय अवधि में हज़ारों साड़ियाँ बनकर तैयार हो जाएँ और इसके व्यापार से लाभ में कई गुना वृद्धि होने की संभावना बढ़ जाए।
जो भी हो, हानि और लाभ के बढ़ने-घटने का क्रम तो जारी रहेगा। इससे प्रभावित हुए बिना भारतीय सांस्कृतिक विरासत को प्रत्यक्ष रूप में जीवित रखने के लिए ये आवश्यक है कि पैठनी साड़ी को तैयार करने की पारम्परिक विधियों को विलुप्त न होने दिया जाय।
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