प्रचलित पौराणिक कथा के अनुसार सुदामा ने अपने मित्र श्री कृष्ण भगवान को श्रापित चने न देकर खुद ही सारे चने चबा लिए और अपने जीवनकाल की मध्य अवधि तक गरीबी का दंश झेलते रहे। इस घटना के पीछे सुदामा का अपने मित्र श्री कृष्ण के लिए प्रेम एवं त्याग की भावना थी।
आइये जाने इस अनोखी मित्रता की पूरी कहानी।
बचपन में कृष्ण और सुदामा संदीपनी गुरु के आश्रम में साथ-साथ शिक्षा प्राप्त करते थे। उसी आश्रम के निकट झोपड़ी में एक गरीब ब्राहमणी रहती थी। जो भीख माँगकर अपनी भूख मिटाया करती थी।
एक बार उस ब्राह्मणी को पाँच दिनों तक कुछ भी भिक्षा में खाने को नहीं मिला। फिर छठे दिन उसे भिक्षा में कुछ चने मिले। ब्राह्मणी ने उस चने को पोटली में बाँध कर दूसरे दिन खाने के लिए रख दिया। उसी दिन एक चोर ब्राह्मणी के घर आया और पोटली बँधी हुई पाकर उसने धन समझ कर उठा लिया।
इसी बीच ब्राह्मणी की नींद खुल गयी और चोर को देखकर वह चीखने लगी। तभी चोर भागकर निकट के संदीपनी ऋषि के आश्रम में जा छुपा। आश्रम में किसी के घुसने का गुरु माता को आभास हो गया। उन्हें अपनी ओर आता देख कर चोर पोटली वहीँ छोड़कर भाग गया।
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सुबह होने पर भूखी ब्राह्मणी अपनी भूख मिटाने के लिए पोटली ढूँढने लगी। पोटली न मिलने पर भूख से व्याकुल होकर उसने श्राप दिया कि जो भी मेरी पोटली के चने खायेगा वो दरिद्र हो जाएगा।
उधर आश्रम में रोज़ की भाँति कृष्ण और सुदामा लकड़ी लेने जंगल में जाने की तैयारी कर रहे थे।
तभी गुरु माता को चने की पोटली बँधी हुई मिली। उन्होंने पोटली सुदामा को देकर कहा कि तुम दोनों इसे आधा- आधा बाँटकर खा लेना।
सुदामा ने श्रापित पोटली के चने अपने मित्र कृष्ण को न देने का निर्णय किया। जब जंगल में कृष्ण ने सुदामा को पेड़ पर चढ़कर लकड़ी काटने को कहा। तभी सुदामा पोटली के चने चबा-चबा कर खाने लगा और कृष्ण के पूछने पर कि ‘ये आवाज कहाँ से आ रही है?’ सुदामा ने कहा कि ठण्ड के कारण मेरे दांत कटकटा रहे हैं। ये आवाज़ उसी की है। इस तरह सुदामा ने सारे चने खुद ही खा लिए।
जिसके परिणास्वरूप शिक्षा समाप्त होने के बाद कृष्ण द्वारिका के राजमहल में निवास करने लगे और सुदामा अति निर्धन ब्राह्मण बनकर अपनी पत्नी और बच्चो के साथ गरीबी का दंश कृष्ण से दोबारा न मिलने तक झेलता रहे।
सुदामा द्वारा चने खुद खा जाने के पीछे जन कल्याण और सबसे बढ़कर अपने मित्र को निर्धन होने से बचाने की भावना निहित थी। ऐसे त्याग और प्रेम की मिशाल थी सुदामा और कृष्ण की मित्रता जो सृष्टि के कायम रहने तक जन साधारण के लिए मित्रता के मिशाल के रूप में कायम रहेगी।
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