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सत्तर साल की आज़ादी के बाद भी क्यों हैं भारतीय महिलाएं कैद

अब हमारे देश को आज़ाद हुए सत्तर साल हो चुके हैं। इस देश की आवाम को हर तरह की तानाशाही, गुलामी से आज़ादी मिल गयी।

लेकिन एक बात जेहन में बरबस खटकती है, कि क्या हमने अपनी पूर्वजों द्वारा कमाई इस आज़ादी का वाकई में मान रखा है? क्या हमने सही तरीक़े से अपने आज़ाद देश की खुली हवाओं में मुक्त होकर सांस कभी लिया है? बहुतों को तो ये सवाल नामुनासिब और अजीब लग रहा हो होगा।

पर अफसोस की बात है, कि आज भी हमारे देश के बहुत से पिछड़े इलाकों में औरतों को अपने घूँघट में ही दम तोड़ना पड़ता है। बहुत से रूढ़िवादी लोग इसे संस्कार का नाम देते हुए अपनी वही पुरानी लकीर पीटते रहेंगे। पर गौर करने लायक तो ये बात है, कि क्या सिर्फ सिर पर घूँघट दे देने से एक महिला संस्कारी हो जाती है, भले भी इस सभ्य समाज में उसका चलन कैसा भी क्यों न हो?

जरा सा घूँघट क्या माथे से सरका, यहाँ लोग उस महिला के चरित्र पर सवालिया निशान लगाने लगते हैं। यह तो केवल एक उदाहरण था। परंतु, दुर्भाग्यवश यह हमारे सभ्य समाज की सच्चाई है।

सिर्फ इतना ही नहीं, यहाँ के लोग कपड़ों की लंबाई और वक्त के हिसाब से ही औरतों के चरित्र का निर्धारण करते हैं। एक लड़की अगर जीन्स या ऐसे ही कोई कपड़े पहन ले तो उसके साथ बदसलूकी की जाती है।

एक घर में, जहां बेटियों पर समय की सख़्त पाबंदी लगाई जाती है, वहाँ उसी घर में बेटों को खुली छूट मिली हुई है। इसी असमानता के कारण ही आज औरतें बिना डरे सड़कों पर अकेले चल नहीं पाती हैं।

ये तो बातें थी औरतों के रहन सहन के विषय में। अब बात आती है शिक्षा की। सभी जानते हैं कि मनुष्य के लिए शिक्षा उतनी ही ज़रूरी है जितना कि एक बंद पड़े मशीन के लिए सॉफ्टवेर ज़रूरी है।

जैसे सॉफ्टवेर के बगैर किसी भी मशीन को नहीं चलाया जा सकता है, ठीक वैसे ही मनुष्य बिना शिक्षा के पेड़- पौधों के समान जड़ ही रह जाता है। बड़े ही दुःख के साथ कहना पड़ रहा है कि आज भी हमारे देश में ऐसे बहुत से कस्बे और गाँव हैं, जहां औरतों पूर्णतः निरक्षर रहती हैं।

ऐसे में औरतें कभी भी आत्मनिर्भर नहीं हो पाएँगी। जिन औरतों ने प्राथमिक शिक्षा ले ली है, उन्हे उच्च शिक्षा नहीं लेने दी जाती, वरन कम उम्र में ही उनका विवाह करा दिया जाता है। ऐसे में तो औरतों का सर्वांगीण विकास हो ही नहीं पाता है।

सिर्फ सलाखों के पीछे रहना ही कैद नहीं कहलता है। हमारे मन की रूढ़िवादी सोच ही दरअसल हमें कैद करती है। जिनकी सोच ही आज़ाद है, उनमें ऐसी लाखों सलाखों को तोड़कर आज़ाद होने का हौसला होता है। इसलिए, पहले अपनी बंद सोच को आज़ाद कीजिये।

शिवांगी महाराणा

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