कहते हैं कि जब-जब धर्म की हानि होती है और अधर्म फैलता है, तब-तब ईश्वर किसी न किसी रूप में धरती पर अवतार लेकर अधर्म का नाश करता है और मानव जाती का कल्याण करता है।
१५ वीं शताब्दी का प्रारम्भ भी ऐसा ही एक काल था, जब चारों ओर हिंदू-मुस्लिम झगड़े, लूट-मार, दलितों पर अत्याचार, छुआछूत आदि फैले हुए थे। ऐसे में धरती पर जन्म हुआ रामदेवजी का।
ऐसी परिस्थिति में विक्रम सम्वत् 1409 को, भादव मास के शुक्ल पक्ष की दूज को, उण्डू-काश्मीर, जिला बाड़मेर में रामदेव बाबा का जन्म हुआ। रामदेव जी का जन्म तोमर वंशीय राजपूत और रुणिचा के शासक अजमलजी के घर हुआ था जो कि अनेकों साल तक निसंतान थें।
कहते हैं कि राजा अजमलजी द्वारकानाथ के परम भक्त थें और उनकी भक्ति से प्रसन्न हो द्वारकानाथ ने उन्हें आशीर्वाद दिया कि वो उनके घर पुत्र के रूप में जन्म लेंगे । इसके पश्चात द्वारकानाथजी ने उनके घर बाबा रामदेव के रूप में जन्म लिया।
बाबा रामदेव ने अपने छोटे से जीवन काल में जहाँ हिंदू-मुस्लिम एकता की स्थापना की, वहीं समाज से छुआ-छूत, भेद-भाव आदि मिटाने जैसे विलक्षण और असंभव दिखने वाले काम भी कर दिखाएँ। यही कारण है कि हिन्दू-मुस्लिम-दोनों उन्हें अपने-अपने तरीके से पूजते और मानते हैं। जहाँ हिन्दू उन्हें रामदेव नाम से पूजते हैं वहीँ मुस्लिमों के लिए वो उनके राम-सा पीर हैं।
रामदेव बाबा ने समाज में व्याप्त उंच-नीच और भेदभाव का भी पूरजोर विरोध किया और पूरा जीवन इससे लड़ने में गुज़ारा। जिस ज़माने में लोग नीची जाती के लोगों से बात तक नहीं करते थे उस ज़माने में बाबा रामदेव ने डालीबाई नामक दलित बच्ची को अपनी धर्म-बहन बनाया और जीवन भर इस बहन-भाई के रिश्ते को मान-सम्मान दिया।
भाई-बहन का यह रिश्ता इतना अटूट था कि जब बाबा ने समाधि ली, तो उनसे पहले उनकी बहन डाली बाई ने समाधि ली और उनकी समाधी की स्थापना भी रामदेव बाबा की समाधि के पास ही की गयी। पोकरण के शासक के रूप में बाबा रामदेव ने एक राजा की तरह नहीं, बल्कि एक जनसेवक के रूप में अपनी प्रजा की सेवा की।
अवतारी पुरुष बाबा रामदेव ने अपने जीवन काल में कई ऐसे कार्य किये जो किसी भी साधारण मनुष्य के बस की बात नहीं थी और जो किसी चमत्कार से कम नहीं थे। रामदेव जी के इन चमत्कारों को २४ पर्चों के नाम से जाना जाता है। इसमें बाबा के बाल्य काल से लेकर अंतिम समय तक के कई विलक्षण कार्यों का उल्लेख है।
३३ वर्ष की अल्पायु में अवतारी पुरुष रामदेव ने जीवित समाधि ले ली। अपनी समाधि का स्थान उन्होंने खुद चुना और वहाँ खुदवाई करवाकर समाधि बनाने का आदेश दिया। समाधि लेने से पूर्व उन्होंने सदा अपने भक्तों की रक्षा करने का और बिना शरीर के भी उनके साथ रहने का वचन दिया।
बाबा के समाधि लेने के सैकड़ों साल बाद आज भी गाँव रुणिचा, लाखों भक्तों की श्रदा और भक्ति का केंद्र बना हुआ है। इस गाँव को अब रामदेवरा नाम से भी जाना जाता है और हर साल यहाँ बाबा के जन्मदिवस पर विशाल मेले का आयोजन होता है। बाबा के सैंकड़ों भक्त राजास्थान, गुजरात आदि देश के अन्य कई हिस्सों से दर्शन पाने के लिए पैदल यात्रा कर रुणिचा आते हैं और बाबा की समाधि के दर्शन कर उनका आशीर्वाद पाते हैं।
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