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क्यों माना जाता है मीना कुमारी को हिंदी फिल्म के इतिहास में महानतम अदाकारा

शायद आप नहीं जानते की आज के युवा वर्ग के दिलों की धड़कन प्रियंका चोपड़ा मीना कुमारी से मिलना चाहती हैं। आज के जमाने की मशहूर अभिनेत्री विद्या बालन, मीना कुमारी के जीवन को फिल्मी पर्दे पर जीना चाहती हैं। आखिर क्या बात है मीना कुमारी में जो आज भी युवा वर्ग उनकी कला का दीवाना है। जन्म लेते ही जिसे अनाथालय की सीढ़ियों ने सहारा दिया, उस महान अदाकारा ने सफलता की सीढ़ियाँ छोटी उम्र से ही चढ़नी शुरू कर दीं थीं।  एक परिवार की तीसरी अनचाही संतान से लेकर सारे संसार की मनपसंद अभिनेत्री बनने तक का सफर। आइये मीना कुमारी के इस सफर पर एक नजर डालते हैं ।

महजबीं से मीना तक का सफर:

1 अगस्त 1932 को एक परिवार में जिस मासूम बच्ची ने जन्म लिया वो अपने माता-पिता के लिए एक अनचाही संतान थी। इसलिए मजबूर पिता ने उसे अनाथालय की सीढ़ियों के हवाले कर दिया। लेकिन फिर दिल के हाथों मजबूर होकर वो उसे घर ले आए और खुदा का इशारा समझ पालना शुरू किया। चाँद जैसी सुंदरता ने उसे महजबीं नाम दिया और गुरबती ने मासूम उम्र का तक़ाज़ा भी इस बच्ची से छीन लिया। माता-पिता का हाथ बंटाने के लिए  गुड़ियों से खेलने वाली उम्र में महजबीं मेकअप करके फिल्म में काम करने आ गयी। रवीन्द्रनाथ टैगोर के वंश से ताल्लुक होने के कारण कला तो उस मासूम के रक्त में ही थी। 1939 में “लेदरफेस” में विजय भट्ट ने उन्हें एक बाल कलाकार के रूप में पहले तो फिल्म में काम दिया और फिर अगले ही साल, 1940 में “एक ही भूल” में उन्हें नया नाम ‘बेबी मीना’भी दिया। इसके बाद सात साल और दस फिल्में करने वाली बाल कलाकार अब फिल्म की हीरोइन बन गयी थी। 1946 में  चौदह वर्ष की उम्र में ‘बच्चों का खेल’ फिल्म ने फिल्म जगत को एक नया सितारा दिया जिसे बाद में दुनिया में मीना कुमारी के नाम से पहचान मिली। इसके बाद मीना ने पीछे मुड़ कर नहीं देखा और सफलता और प्रसिद्धि की सीढ़ियाँ तेजी से चढ़ती चलीं गईं। पौराणिक, सामाजिक, हास्य हो या पारिवारिक, मीना हर फिल्म की हीरोइन थीं और हर फिल्म में सफल थीं। इस समय तक मीना और सफलता एक दूसरे का पर्याय बन गईं थीं। 

मीना कुमारी से नाज तक का सफर:

वर्ष 1952, उन्नीस वर्ष की नाजुक उम्र में जब एक युवती दुनिया को देखने का नज़रिया सीखती है, मीना अब “बैजु बावरा” की ‘गौरी’ के रूप में दुनिया के सामने मीना कुमारी बन कर आ गयी। उम्र के इस पड़ाव पर किस्मत ने जी खोल कर मीना कुमारी पर खजाने लुटाये। यही वो साल था जब मीना कुमारी ने पहली अभिनेत्री के रूप में “बैजु बावरा” के लिए ‘सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री’फिल्म फेयर अवार्ड पाया। इसी साल मीना कुमारी, मशहूर फिल्म डायरेक्टर कमाल अमरोही की शरीके-हयात बन गईं। उसके बाद हर वर्ष एक नयी फिल्म और आसमान छूती शोहरत। इसके बाद अगले दस साल तक उन्होने 15 से ज्यादा फिल्मों में हर बड़े हीरो और हर बड़े डायरेक्टर के साथ काम किया ।  समाज और देश ही नहीं बल्कि विदेशों में भी खूब नाम कमाया। अगर एक फिल्म का नाम लेते हैं तो दूसरी के साथ अन्याय होगा। प्रसिद्धि ने मीना कुमारी को तन्हाइयों का तोहफा देना शुरू किया जिसे उन्होने ‘नाज़’ के नाम से डायरी में उतारना शुरू किया। 

पतझड़ की शुरुआत:

1962 तक के समय को महजबीं ने अपने नाम सार्थक किया और उसके बाद उनके जीवन पर अकेलेपन का ग्रहण लगना शुरू हो गया। तब भी मीना कुमारी ने एक महानतम अदाकारा के रूप में,  पर्दे के पीछे के दर्द को सामने नहीं आने दिया। 1955 में एक अनमोल फिल्म ‘पाकीज़ा’ का निर्माण शुरू हो गया था लेकिन मीना कुमारी के बीमार होने के कारण और कुछ और वजहों के कारण यह फिल्म दोबारा 1964 में बननी शुरू हुई और फरवरी  1972 में रिलीज हो गयी। मीना कुमारी ने इसमें अपनी घटती हुई साँसे डाल दीं और एक अनमोल शाहकार तैयार हो गया जिसे देखना उनके नसीब में नहीं था। इस फिल्म के रिलीज होने के ठीक एक महीने बाद जमीन के इस चाँद ने हमेशा के लिए आँखें मूँद लीं।

जमाना बड़े शौक से सुन रहा था

तुम्हीं सो गए दास्तां कहते-कहते।

Charu Dev

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