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मासिक धर्म को लेकर अन्धविश्वास एवं गलत धारणाएं

मासिक धर्म औरतों की एक ऐसी पहचान है, जिनसे उन्हें इस संसार में अलग दर्जा मिला है. जननी का दर्जा. अर्थात हम में वो शक्ति है, जिससे हम एक नए जीवन को इस दुनिया में ला सके. मगर इस पहचान को अक्सर महिलायें गोपनीय तरीकें से अपनाने और रूढ़िवादी परम्पराओ में जीने को मजबूर है.

विज्ञान की मानें तो मासिक धर्म हमारे शरीर की उस प्रक्रिया के अंतर्गत आता है, जब यूटेरस या गर्भाशय से ख़राब रक्त प्रवाह होता है. ये ५-७ दिन तक चलता है और इसकी शुरुआत १०-११ वर्ष की आयु में हो जाती है. ये एक सामान्य प्रक्रिया है, जो दुनिया की हर महिला को होता है, पर ना जाने क्यों आज भी लोग इससे जुड़े गलत धारणाओं पर विश्वास करते है.

अगर परम्पराओं की माने तो महिलाओं को मासिक धर्म होने का कारण इंद्रा देव की उस पाप का भोग करना, जिसमें उनसे दुर्भाग्यपूर्वक एक ब्राह्मण की हत्या हो गयी थी. माना ये जाता है, कि महिलायें इस समय “अपवित्र ” होती हैं और उन्हें अपने परिवार और घरेलु दिनचर्या में वापस जाने के लिए “पवित्र ” होना पड़ेगा. अपनी दिनचर्या में भी उन्हें बहुत मुश्किलों का सामना करना पड़ता है. वे पूजा घर , मंदिर नहीं जा सकती , पूजा नहीं कर सकती.

कई जगहों पर तो ये भी माना जाता है, कि मासिक धर्म के होने से औरतें गन्दी हो जाती है और जो उसे किसी भी खाद्य प्रदार्थ को छूने या उसे बनाने की अनुमति नहीं देता.कुछ लोगों का मानना है,कि खटास वाले चीज़ो से दूर हो जाना , व्यायाम नहीं करना जैसे कुछ उपाए आपकी सहायता करेंगे.

मगर क्या इन धारणाओं और अंधविश्वासों से दुनिया का विकास संभव है ? कहने को तो हमलोग २१ वि शताब्दी में रहते हैं, लेकिन अभी भी रूढ़िवादी परम्पराएँ और मान्यताएँ अपने ही लोगों से सही तरीक़े से जीने का हक़ छीन रही है. भारत में आज भी बहुत महिलाएँ और बच्चियाँ पैड का इस्तेमाल नहीं करती , वे वहीं पुराने तरीक़े (कपड़ा , राख , मिटटी , पत्तो ) का इस्तेमाल करती है.

इन सब चीज़ो से उनके गुप्त अंगो पे कितना दुष्प्रभाव पड़ता है, ये कल्पना से भी परे है. गावों में महिलाएँ, अपने मासिक धर्म के समय बिस्तर पे नहीं सो सकती, उन्हें ज़मीन में सोना होता है , खून से सने कपड़ो को एक गड्ढे में भरना होता है, ताकि उसे काले जादू में इस्तेमाल होने से बचाया जा सके, जी हां , ये प्रथा आज भी प्रचलित है.

एक ऐसे समय में जब हम महिलाओं को प्यार और साथ की सबसे ज़्यादा ज़रूरत होती है , उस समय ना जाने कितने परम्पराओं के नाम पे बली चढ़ती है, हमारे उसूलो की. इसके लिए किसे दोषी ठहराएंगे आप . खुद को या समाज को, दोनों में कोई बदलना नहीं चाहता. बदलने की शुरुआत हमे करनी होगी, क्योकि चुपचाप सहना भी एक गुनाह ही है.

श्रेया सिन्हा

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