मुस्कुराइए, आप लखनऊ में हैं! ऐसे मोहब्बत के साथ स्वागत करता है आपका लखनऊ शहर। यूं तो हर शहर की अपनी एक अलग छाप होती है, पर लखनऊ के रूमानियत की बात ही कुछ जुदा है। जैसे वहाँ का इमाम बारा, गलौटी कबाब, भूलभुलैया, दौलत की चाट, वहाँ का “पहले आप” कहने का लहजा। हर चीज में अदब और लज़ीज़पन झलकता है, जो मुझे तो बहुत ही भाता है।
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ऐसा ही, शानो-शौकीयत लखनऊ के पहनावे-ओढ़ावे में भी दिखता है। फिर चाहे बात वहाँ के शाही ज़रदोज़ी काम की हो, जिसे मुग़लों ने खूब सराहा। और शायद ऊपर वाली कुर्ती को देख आपने भी उतना ही ज़री के इस खूबसूरत काम को उतना ही सराहा होगा।
कहते हैं – ज़रदोज़ी फ़रासी शब्द है, ज़र अर्थात “सोना”, और दौज़ी अर्थात “धागे का काम” – मूल यह निकलता है कि इसमें स्वर्णिम धागे का इस्तेमाल किया जाता हैं।
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चलिये, अब दूसरी कलाकारी के बारे में बात की जाए: चिकनकारी ।
चिकनकारी कढ़ाई कई सालों से प्रसिद्ध है। इसका जन्म कैसे हुआ इसका कोई ठोस प्रमाण तो नहीं, पर 3 शताब्दी ईशा पूर्व भी इसकी छाप देखने को मिलती है (चन्द्रगुप्त मौर्य के समय)।
और कहानियाँ तो यह भी हैं कि नूर जहां अव्वल दर्जे की बुनाई करती थीं, और चिकनकारी के लिए उनकी दिल में खास जगह थी। समय और आधुनिकरण के साथ-साथ यह कला भी में भी परिवर्तन आए। नए अंदाज़ जोड़े गए। और आज इसे 36 अलग अंदाज़ों में बुना जाता है।
मोटा-मोटी अंतर तो इसके बुनाई के आकार और एक-दूसरे से दूरी की है। कुछ चावल के दाने के आकार के होते हैं, जिन्हें “मुर्री” के नाम से जाना जाता है, तो कुछ बाजरे के दाने के आकार के होते हैं, जिन्हें “फांडा” के नाम से जाना जाता है।
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➡ कशीदाकारी का अद्भुत नमूना दिखेगा आपको इन चिकनकारी के काम वाली साड़ियों में
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मुकेश या मोकाइश भी लखनऊ के विरसात का नायाब हीरा है। मेटल के तार से पूरे कपड़े पर एक समान दिखने वाला काम किया जाता है, अक्सर छोटे पोलका डॉट, पत्ते इत्यादि बनाए जाते हैं। इसे बनाने के लिए पुराने ज़माने में तो, शुद्ध सोने और चाँदी के तारों का इस्तेमाल किया जाता था।
यह कढ़ाई लखनऊ के रियासत और रईसीयत दोनों का प्रतीक है। आज के दौरान में, कारीगर की कमी और खर्चीला होने की वजह से, यह कहीं धुंधला सा हो चला है। लखनऊ के “चौक” नामक जगह पर इसका वजूद आपको आज भी देखने को मिल जाएगा।
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