लंगर का नाम सुनते ही, हमारा मन में गुरुद्वारे के लंगर हॉल का वो दृश्य आ जाता है, जहाँ पर सभी बिना किसी भेदभाव के, एक साथ ज़मीन पर बैठकर भोजन का आनंद लेते हैं। सिख धर्म की यह सबसे सुंदर परंपरा है, और हम आज इसी पर चर्चा करेंगे।
लंगर का अर्थ होता है सामूहिक भोज। सिख धर्म की इस सुंदर परंपरा की सबसे खास बात यह है कि किसी खास दिन नहीं होता, अपितु साल के बारहों महीने चलता है! जिसमे किसी भी धर्म संप्रदाय के लोग एक-साथ बैठ कर खाना खा सकते हैं।
इतिहास में ऐसे तो सामूहिक भोज लगाने की परंपरा तो बहुत पहले से थी, लेकिन वह केवल कुछ जाती विशेष के लोगों द्वारा ही लगाया जाता था और वहाँ एक सम्प्रदाय के लोग ही खाना खाते थे। लेकिन सिख धर्म मे जब इस परंपरा की शुरुवात हुई तब लंगर में किसी भी जाति को सर्वोपरि न मानते हुए सभी को एक ही ईश्वर के रचित इंसान समझकर उन्हें खाना खिलाया जाता था।

कुछ नेक बातें जो सिख धर्म हमें सिखाता है।
लंगर की शुरुवात सिख धर्म के पहले गुरु श्री गुरु नानक जी द्वारा सन 1481 के आसपास की गयी थी। नानक देव के पिताजी ने उन्हें 20 रुपये देकर सच्चा सौदा (व्यापार) स्थापित करने के लिए कहा, लेकिन गुरुजी ने उन रुपयों से खाद्य सामग्री खरीद कर उन संतो में वितरित कर दी जो बहुत दिनों से भूखे थे। माना जाता है तभी से लंगर प्रथा की शुरुवात हुई और जिस जगह पर गुरुजी ने उन संतो को भोजन करवाया था, अब वहाँ पर गुरुद्वारा सच्चा सौदा साहिब है, जो अब पाकिस्तान में पड़ता है।
इसी प्रकार बाकी गुरुओं ने भी इसी कड़ी में लंगर को आगे बढ़ाया ओर इसे एक सुचारु ओर सुशासित रूप दिया। गुरु अंगदजी ने लंगर को हर गुरुद्वारे के लिए या जहा भी संगत हो या गुरु के दर्शन होते हों, वहाँ लंगर को अनिवार्य करवाया था।
सेवादारों ( गुरुद्वारे में जो कार्य करते हैं) को लंगर तैयार करने का तरीका ओर उसकी परम्पराओं के बारे में भी बताया। गुरु अमर दासजी का आदेश था, “पहले पंगत, फिर संगत” अर्थात उनसे मिलने जो भी आये, वो पहले लंगर (भोजन) खा कर ही उनसे मिले। स्वयं बादशाह अकबर भी जब गुरुजी के दर्शन करने आये, तो उन्होंने भी सभी के साथ जमीन पर बैठकर खाना खाया और फिर उनके दर्शन किए ।
श्री गुरु गोबिंद सिंह जी ने भी लीन होने से पहले कहा था, “देग तेग जग में दोऊ चले” अर्थात अन्याय के लिए तलवार और लंगर हमेशा चलता रहना चाहिए। उनका मानना यह था कि गरीब का मुँह गुरु की गोलक होता है, इसलिए गरीबों को खाना खिलाने का मतलब है गुरु की सेवा करना। इसलिए लंगर हमेशा (24 घंटे) खुले रहते हैं।
लंगर से सम्बंधित कुछ विशेष बातें:
- लंगर में हमेशा शुद्ध शाकाहारी भोजन सेवादारों द्वारा बनाया जाता है।
- लंगर बनाते समय इस बात का पूरा ध्यान रखा जाए कि वह पूरी पवित्रता से बनाया जाए और गुरु की बानी का मनन करते हुए तैयार किया जाए।
- लंगर हमेशा अरदास के बाद ही खाया जाता है और इसे पंगत में ही परोसा जाता है, जिसमें सभी लोग एक साथ बिना किसी भेदभाव के बैठते हैं।
- लंगर में खाते समय इस बात का अवश्य ध्यान रखें कि भोजन झूठा न छोड़ा जाए।
लंगर तैयार होने के बाद एक थाली में थोड़े-थोड़े सभी व्यंजनों को निकाला जाता है और श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी के समक्ष अरदास किया जाता है। इसके पश्चात किरपान ( स्टील का चाकू) से सभी व्यंजनों को स्पर्श किया जाता है और फिर उसे बाकी के भोजन में मिला दिया जाता है जिससे कि गुरुजी का आशीर्वाद सभी को प्राप्त हो। फिर इस लंगर को संगत में बाटा जाता है। सभी को सारे व्यंजन परोसने के बाद गुरु का नाम लेकर सभी खाना शुरू करते हैं।
लंगर में हमेशा सिर ढ़ककर ही खाना खाया जाता है।
लंगर परोसते वक़्त इस बात का विशेष ध्यान रखा जाता है कि परोसते समय चम्मच आपकी थाली को स्पर्श न करे और जिन चीजों के लिए चम्मच का उपयोग नही होता, जैसे कि प्रशादा (लंगर में रोटी के लिए इस्तेमाल होने वाला शब्द), वो हाथों से आपके हाथ में इस प्रकार दिया जाता है कि आपके हाथों को स्पर्श न हो जिससे खाने की पवित्रता बनी रहती है।
विश्व के सभी गुरुद्वारों में आपको लंगर सेवा निरंतर चलती हुई मिलेगी। बड़े गुरुद्वारों में अलग से बड़े लंगर हॉल होते हैं और जहाँ छोटे गुरद्वारे होते हैं, वहाँ पर एक कमरे में भी लंगर चलाया जाता है, जहां श्रद्धालु अपने घर से भोजन लाकर भी लंगर की सेवा को चालू रखते हैं।
विश्व का सबसे बड़ा लंगर लगता है अमृतसर में
अमृतसर के स्वर्ण मंदिर में विश्व का सबसे बड़ा लंगर हॉल है जहाँ रोजाना लाखों लोग भोजन करते हैं। सबसे आधुनिक इस लंगर हॉल में प्रतिदिन माँह की दाल, प्रशादा, चावल और खीर बनाई जाती है। इतना ही नहीं, अमृतसर से नांदेड़ जाने वाली सचखंड एक्सप्रेस में भी कई स्टेशनों पर तीर्थ यात्रियों के लिए रोजाना लंगर लगता है। कई बार किसी प्राकृतिक आपदा आ जाने पर भी लंगर की सेवा लगाई जाती है। लंगर में सभी लोग बढ़चढ़कर हिस्सा लेते हैं और अपनी भक्ति अनुसार अपना योगदान देते हैं।
लंगर एक परंपरा ही नहीं, बल्कि एक निःस्वार्थ सेवा है जिससे विश्व में न सिर्फ गरीबों की मदद हो रही है, बल्कि ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ जैसे सुंदर मानविय भाव का एक जीवंत उदाहरण है।
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