हमारी भारतीय संस्कृति बहुत सी परम्पराओं और मान्यताओं में विश्वास रखती है। इसमें से कई परंपराएं ऐसी हैं, जो हमे हमारे अतुल्य इतिहास और सभ्यता की याद दिलाती है. लेकिन इनमे से कुछ रूढ़िवादी परंपराएं ऐसी भी हैं, जो हमारे समाज के लिए एक अभिशाप के रूप में उभर कर सामने आ रही है।
महिलाओं के लिए बहुत ही अलग नियम कायदों का निर्माण किया गया है जो यह बात को दर्शाता है, कि हमारा समाज प्राचीन युग से ही पुरुष प्रधान समाज रहा है।
जब बात पीरियड्स के उन दिनों की आती है, जिनमें महिला के शरीर में काफी शारीरक और मानसिक बदलाव होते रहते है। इस समय उसे धर्म के नाम पर कई ऐसे नियम कायदों का सामना करना पड़ता है, जो सुनने में ही बहुत अजीब लगते है।
जिन्हें मानने के पीछे जो अब तक तर्क दिए जाते हैं, वो सब निराधार ही है। भारतीय संस्कृति जहाँ एक तरफ देवी की भक्ति की जाती है, वहीं उसी के स्वरूप को महीने के उन कठिन दिनों में यानि की माहवारी के वक़्त अछूत मन लिया जाता है।
खासकर पहाड़ी मंदिरो में महिलाओं का पीरियड्स में जाना वर्जित है। यह सब नियम प्राचीन समय में बनाये गए थे। माहवारी के कठिन दिनों में एक महिला को कमर दर्द , सर दर्द , रक्त स्त्राव, बदन दर्द ऐसी कई समस्याओं का सामना करना पड़ता है। यह लक्षण काफी हद तक व्यक्तिगत शारीरिक बनावट पर निर्भर करती है।
अब जब प्राचीन समय की बात करें तो उस वक़्त न तो आवागमन के लिए उतने साधन उपलब्ध थे, जिस कारण सभी पद यात्रा ही करते थे। अब ऐसे समय में किसी महिला का पहाड़ पर चढ़ना कितना कठिन होगा। और अगर वह पहुंच भी गयी तो क्या उसका ध्यान आध्यात्मिक चीजों में लगेगा।
जहा तक इस बात को पवित्रता से जोड़ा जाता है, तो अभी तो कई सारे अत्याधुनिक चीजे बाजार में बड़ी आसानी से उपलब्ध हो जाती है. लेकिन उस समय में महिलायें सिर्फ कपड़ों का ही इस्तेमाल करती थी। तो लम्बे सफर में जाना और अगर अधिक रक्त स्त्राव हुआ तो उनके लिए यह काफी परेशानी की बात होगी।
पूजा पाठ न करने का ग़र कारण जानने की कोशिश करें तो इसका सीधा सा जवाब यह यही, कि जब भी हम पूजा करते हैं, तो हमारी ऊर्जा निचे से ऊपर की और जानी चाहिए लेकिन जब मासिक चक्र चालू होता है, तो शरीर की ऊर्जा निचे जाती है। तो हमारे शरीर में असंतुलन न हो जाये, इसलिए पूजा पाठ करने से मना किया जाता है।
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