• श्रावण का पवित्र माह शुरू होते ही प्रसिद्ध कावड़ यात्रा का भी आरंभ हो जाता है, जिसमें लाखों-करोड़ों शिवभक्त हिस्सा लेते है। कावडि़या अपने कंधे पर कावड़ (डंडा) को रखकर चलते है, जिसके दोनों छोरों पर जल कलश को बांधा जाता है और इसे आकर्षित बनाने के लिए फूल-माला, घंटी, घुंघरू आदि से सजाया जाता है। उत्तर भारत में इस यात्रा को बहुत ही महत्वपूर्ण धार्मिक समारोह रूप में जाना जाता है, जिसमें केवल पुरूष ही नहीं महिलाएं व बच्चें भी हिस्सा लेते है। कावड़ यात्रा चार प्रकार की होती है।
• कावड़ यात्रा भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए की जाती है। ऐसा माना जाता है, कि कावड़ से ज्योतिर्लिंगों पर गंगाजल चढ़ाने से भोलेनाथ प्रसन्न होकर हमारी हर मनोकामना पूर्ण कर देते हैं। मान्यता है कि जब समुद्र मंथन के बाद 14 रत्नों में विष भी निकला, तो भगवान शिव ने उस विष को पीकर सृष्टि की रक्षा की। लेकिन इस कारण उनका गला नीला पड़ गया और इसलिए महादेव को ‘नीलकंठ’ भी कहा जाने लगा। विष के प्रभाव को कम करने के लिए भगवान शिव ने दरांती चॉद को अपने शीर्ष पर धारण किया और तभी से गंगाजल से शिवलिंग का अभिषेक करके विष के प्रभाव को कम करने की परंपरा चली आ रही है। पुराणों में वर्णन है कि पहले कावडि़या महाराज रावण थे। भगवान श्री राम ने भी कावडि़या के रूप में बैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग पर गंगाजल चढ़ाया था।
• इस यात्रा के दौरान तन व मन की पवित्रता का विशेष रूप से ध्यान रखा जाता है, इसलिए कोई भी कवाडि़या स्नान के बाद ही कावड़ को छू सकता है और तेल, साबुन व कंघी का उपयोग नहीं कर सकता है। मांसाहारी भोजन व धूम्रपान का सेवन पूर्णत: वर्जित रहता है। इस यात्रा के दौरान व्यक्ति हर प्रकार की सांसरिक मोहमाया से दूर होकर शिव ध्यान में लीन हो जाता है। यात्रा के दौरान सभी एक-दूसरे को भोला या भोली कहकर ही संबोधित करते हैं। माना जाता है कि कंधे पर कावड़ रखकर शिव नाम लेते हुये चलने से काफी पुण्यार्जन होता है और हर पग के साथ एक अश्वमेघ यज्ञ के समतुल्य फल की प्राप्ति होती है। भगवान शिव को प्रसन्न करने का यह सबसे सरल मार्ग माना जाता है और वे खुश होकर हमारी सभी इच्छाओं को पूर्ण कर देते है। यह यात्रा मन को शांति प्रदान कर हमें जीवन की हर कठिन परिस्थिति का सामना करने की शक्ति देती है।
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