जैन धर्म में अहिंसा का सर्वोच्च स्थान है, जिसमें सूक्ष्म स्तर पर भी किसी प्रकार की हिंसा करना पाप की श्रेणी में आता है। जैन धर्म का मूल सिद्धांत है ‘जीयो और जीने दो’ जिसका आधुनिक युग में व्यापक प्रचार-प्रसार 24वें तीर्थंकर श्री महावीर स्वामी जी के द्वारा किया है।
हमें अपने जीवनयापन के लिए हिंसामुक्त जीवन-शैली अपनानी चाहिये और प्रयास करें जितना हो सकें हिंसा से बचें, यही जैन धर्म का मर्म माना जाता है।
जहाँ तक बात खाने-पीने की है हमें वही आहार ग्रहण करना चाहिये, जिसकी उत्पत्ति में जीव हिंसा न हो और अगर हो तो भी वो कम से कम हो। जैन धर्म के अनुसार जो सब्जियां एवं फल जमीन के अंदर उत्पन्न होते है, वे खाने योग्य नहीं है और उन्हें कंदमूल कहा जाता है। जमीन के अंदर सूर्य का पर्याप्त प्रकाश न पहुचँ पाने के कारण इनमें असंख्य जीव उत्पन्न हो जाते है, इसलिए कंदमूल अनंतकाय होते है ,अर्थात् एक शरीर में असंख्य सूक्ष्म जीवों का वास होता है। जैन धर्म के अनुसार इनका सेवन करना वर्जित है, फिर चाहे वो प्याज, लहसुन, आलू, मूली, गाजर आदि क्यों न हो।
अगर इनका सेवन किया जाता है, तो जाने-अनजाने में अनंत जीवों का घात होना निश्चित है और यह जैन धर्म के मूल सिद्धांत के विरूद्ध है। कई वैज्ञानिक शोधों से यह सिद्ध हुआ है कि कंदमूल के एक सुई बराबर हिस्सें में असंख्य जीव होते हैं।
पूर्ण रूप से शाकाहारी आहार को सात्विक भोजन कहते है। जीवन को खुशहाल, समृद्ध और सफल बनाने के लिए विचारों की शुद्धता बहुत ही आवश्यक है और सात्विक भोजन करने से हमारे अंदर संयम, दया व करूणा का भाव समाहित होता है। वही दूसरी ओर कंदमूल युक्त ताम्सिक भोजन करने से भावों में विकार उत्पन्न होता और मन अशांत होने लगता है।
जब किसी भी जीव का सृजन हमारे द्वारा नहीं हो सकता है, तो फिर किसी को मारने का अधिकार हमें किसने दिया है ? यह प्रश्न बहुत ही महत्वपूर्ण है और हर किसी को इसके बारें में सोचना चाहिये।
भगवान महावीर जैन धर्म के संस्थापक थे? फिर वह चौबीसवे तीर्थंकर कैसे हो सकते हैं?
Lakhvinder Singh
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