कहते हैं कि ईश्वर सर्वशक्तिमान है और वो इंसान की हर मनोकामना पूरी कर सकता है। लेकिन जब ईश्वर का धरती पर अवतरण होता है, तो मानव-कल्याण हेतु कभी-कभी उसे अपनी भी इच्छाओं का त्याग करना पड़ता है।
ईश्वर की इसी दिव्यता और महानता को दर्शाता है कन्याकुमारी का मंदिर। कन्याकुमारी का मंदिर जुड़ा है माँ भगवती की अधूरी आस से और उनके अविवाहिता रह जाने वाली कथा से।
भारत के सबसे दक्षिण छोर में बसा कन्याकुमारी शहर जाना जाता है ३००० से अधिक पुराने कन्याकुमारी मंदिर के लिए। यह मंदिर समर्पित है देवी कन्या को, जो कि माँ पार्वती का एक रूप है। इस मंदिर को कुमारी अम्मन मंदिर के नाम से भी जाना जाता है।
माँ पार्वती क्यों रह गयीं कुंवारी
बाणासुर नाम के राक्षस को ब्रम्हाजी के द्वारा वरदान प्राप्त था कि वह सिर्फ किसी कुँवारी कन्या के मारने से ही मरेगा। बाणासुर को मारने के लिए ही माता पार्वती ने महाराज भरत के घर पुत्री बनकर अवतार लिया। जब वह कन्या बड़ी हुई तो उसने निर्णय लिया कि वह भगवान शिव के सिवा किसी और से विवाह नहीं करेगी। इसी वजह से वह शहर के बाहर समुद्र तट पर कुटिया बनाकर वहीं पर भगवान शिव की तपस्या में लीन हो गयी।
वर्षों की तपस्या के बाद भगवान शिव ने उस कन्या को दर्शन दिए और उस कन्या के विवाह के प्रस्ताव को स्वीकार किया। कहा जाता है एक दिन भगवान शिव बारात लेकर उस कन्या से विवाह करने चल पड़े थे, परंतु रास्ते में ही नारद मुनि ने भगवान शिव को इस प्रकार उलझाया की विवाह का शुभ मुहूर्त ही निकल गया और वह कन्या हमेशा के लिए कुँवारी रह गई। क्योंकि माँ भगवती का कन्या अवतरण बाणासुर के वध के लिए हुआ था, और बाणासुर का वध केवल कुवांरी कन्या द्वारा ही संभव था, इसलिए नारदजी को इस लीला के द्वारा यह शादी रुकवानी पड़ी।
उस कन्या ने जो भी चावल के दाने अपनी शादी के लिए जमा करके रखे थे, वे सब पत्थर में परिवर्तित हो गए।आज भी वे पत्थर उस मंदिर के पास चावल के दाने के आकार में मन्दिर के बाहर मिलते हैं। उन चावल के दाने जैसे पत्थरों को यात्री खरीदकर अपने घर ले जाते हैं।
बाणासुर का अंत
एक दिन बाणासुर घूमते-घूमते उसी जगह पर पहुंच गया जहाँ पर महाराज भरत की कन्या शिवजी की तपस्या किया करती थी। उस कन्या की सुंदरता देख कर बाणासुर उस सुंदर कन्या पर मोहित हो गया और उस कन्या के सामने शादी का प्रस्ताव रखा। बाणासुर की बात सुनकर कन्या ने उसके सामने शर्त रखी कि यदि वह उससे युद्ध में जीत गया तो वह उससे शादी कर लेगी।
यह सुनकर बाणासुर भी युद्ध के लिए तैयार हो गया और दोनों में घमासान युद्ध शुरू हो गया। माँ पार्वती ने बाणासुर को युद्ध में परास्त किया और उसे मार गिराया।
उस कन्या के देह त्यागने के बाद, उस जगह पर, जहां उस कन्या की कुटी थी, एक विशाल और भव्य मंदिर बना। चूंकि वह मन्दिर कुमारी कन्या के लिए बनाया गया था, इसलिए वह कन्याकुमारी के मंदिर के नाम से विख्यात हुआ। कहते हैं भगवान् परशुराम ने इस मंदिर के निर्माण का कार्य आरम्भ करवाया था।
कन्याकुमारी का हिन्दुओं के लिए महत्व
इस मंदिर के कारण हिन्दुओं में कन्याकुमारी शहर का विशेष आध्यात्मिक महत्व है। कन्याकुमारी का यह मंदिर ५१ शक्ति पीठों में से भी एक है और मान्यता है कि यहाँ माँ सती की रीढ़ की हड्डी गिरी थी। इसी कारण कहा जाता है कि इस पवित्र स्थान पर कुण्डलनी शक्ति का जागरण होता है।
१८९२ में अपने गुरु स्वामी रामकृष्ण परमहंस के आदेश पर स्वामी विवेकानंद ने यहाँ आकर माँ भगवती के दर्शन और पूजा की थी और उनसे आशीर्वाद लिया था।
अद्भुत प्राकृतिक सौंदर्य है कन्याकुमारी के मंदिर के आस पास
कन्याकुमारी के मंदिर के पास प्रकृति बेहद खूबसूरत है, मंदिर के आस-पास देखकर ऐसा लगता है मानो प्रकृति यहाँ श्रृंगार करके बैठी हो। प्रकृति की यह खूबसूरती सुबह सूर्योदय के समय तो और भी मनमोहक हो जाती है जब सूरज से निकलने वाली किरणें अरब सागर की खाड़ी में गिरकर समुद्र को लाल कर देती हैं। वास्तव में वह नजारा बेहद खूबसूरत और देखने लायक होता है।
अब अंतिम में मैं यही कहूंगा की जब भी आपके पास समय हो, आप इस मंदिर की प्राकृतिक सुंदरता के दर्शन करने और इसकी दिव्यता का अनुभव करने जरूर जाएं।
:arrow: क्यों शक्ति पीठों में असम के कामाख्या पीठ का स्थान विशेष है?
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