जैन धर्म के अनुसार यह सृष्टि आदि-अनन्त है, इसका कोई कर्ता-धर्ता नहीं है। समय अपनी गति से चलता जाता है। जैन धर्म में समय को दो चक्रों में बॉटा गया है। पहला उत्सर्पिणी युग एवं दूसरा अवसर्पणी युग । एक के समापन के बाद दूसरा आरम्भ हो जाता है। इन उत्सर्पिणी एवं अवसर्पिणी युगों को भी छ: काल में विभाजित किया गया है, जिन्हें प्रथम, द्वितीय, तृतीय, चतुर्थी, पंचम एवं छठम काल कहा जाता है। अवसर्पिणी युग में प्रथम से छठवें काल तक आते-आते मनुष्य के शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक स्तर में गिरवट आती जाती है। उत्सर्पणी युग में इसके बिल्कुल विपरीत होता है।
प्रत्येक उत्सर्पिणी एवं अवसर्पिणी युग के चतुर्थी काल में ही नियमित अन्तराल पर 24 दिव्य जीवों का अवतरन होता है, जो अन्य सभी जीवों को धर्म व नीति का मार्ग बताते हैं। इन्हीं भव्य आत्माओं को तीर्थंकर कहते हैं। अभी अवसर्पिणी युग का पंचम काल चल रहा है, इसलिए इस समय तीर्थंकर का अवतरन होना संभव नहीं है।
तीर्थंकर, अन्य किसी मनुष्य की ही तरह होते है, मगर इन्होंने अपने पूर्व जन्मों में ध्यान, करूणा, तप-साधना व संयम के बल से तीर्थंकरत्व को प्राप्त कर अज्ञानता को पूर्ण रूप से नष्ट कर दिया होता है। तीर्थंकर के गर्भ में आने से पहले माता को सोलह स्वप्न दिखाई देते है, जो इस बात का प्रतीक होते है कि गर्भ में आने वाला जीव कोई असाधारण ही है। तीर्थंकर के जन्म लेने से पूरे विश्व में हर्ष वातावरण होता है व तीनों लोकों के जीव इस जन्मोत्सव को धूमधाम से मनाते हैं।
तीर्थंकर जन्म से ही पूर्व भवों में किये गये शुभ कर्मों के कारण अत्यधिक बलवान, बुद्धिमान व असाधारण प्रतिभावान होते है। वे इस जन्म में भी कठिन तप व ध्यान की सहायता पहले चार घातिया कर्मों (क्रोध, मान, माया लोभ) को नष्ट कर केवल ज्ञान (संपूर्ण ज्ञान) को प्राप्त कर ‘अरिहंत’ कहलाते है। ‘अरिहंत’ का अर्थ होता है, खुद पर विजय पाने वाला या अंदर के शत्रुओं को जीतने वाला, क्योंकि जब तक हम इन अंदरूनी शत्रुओं को नहीं जीतेंगे, जब तक हमारी आत्मा सांसरिकता से बाहर नहीं आ सकती है।
अरिहंत अवस्था को प्राप्त करने के बाद, तीर्थंकर धर्म सभाओं के माध्यम से प्राणी मात्र को उपदेश देकर धर्म तीर्थ का प्रवर्तन करते हैं व सभी जीवों को संसार सागर से पार होने का सही मार्ग बताते है। इस अवस्था में तीर्थंकर को कर्मबन्ध नहीं होता है, इसके विपरीत अन्य सभी जीवों को जीवन के हर क्षण में किसी-न-किसी प्रकार का कर्मबंध होता ही रहता है। वे अब सिर्फ बचें हुए चार प्रकार के अघातिया कर्मों को नष्ट करने का प्रयास करते हैं और इन्हें नष्ट करके ‘सिद्ध’ अवस्था को प्राप्त करते है। ‘सिद्ध’ अवस्था पाने के बाद तीर्थंकर हमेशा-हमेशा के लिए जनम-मरण के चक्र से मुक्त हो जाते है ।
इस वर्तमान युग में जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर श्री आदिनाथ जी थे। जिन्हें ऋषभदेव जी भी कहा जाता है। श्री आदिनाथ भगवान का जन्म आज से करोड़ों वर्ष पहले अयोध्या नगरी में हुआ था। इनके पिता राजा नाभिराय जी थे एवं माता मरूदेवी जी थी।
तीर्थंकरों का एक ही उद्देश्य होता है, कि वो ज्ञान व ध्यान की शक्ति से हर प्राणी को धर्म का मर्म समझाकर भौतिक व नश्वर संसार से मुक्ति पाने का मार्ग बतलाये, ताकि सभी उनकी तरह शाश्वत सत्य मोक्ष के अधिकारी बन सकें।
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