मेरे पड़ोस में शर्मा आंटी की लड़की की शादी कुछ दिनों पहले ही हुई। चार साल पहले शर्मा अंकल का स्वर्गवास हो गया था। शर्मा आंटी ने अकेले अपने बल-बूते पर २ लड़कियों की शादी की। यह सबसे छोटी लड़की की शादी थी।
शर्मा आंटी ने माँ और पिता दोनों की ज़िम्मेदारी बखूबी निभायी। लेकिन विधवा होने के कारण वह किसी भी लड़की की शादी की रश्मों में शामिल नहीं हो पायीं। हल्दी-मेहँदी से लेकर कन्यादान तक रिश्तेदारों ने किया। क्या यह उचित है ?
इस लेख के माध्यम से हमारा उद्देश्य किसी की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुँचाना नहीं, बल्कि ऐसे अनुचित रीति-रिवाजों के विषय में पाठिकाओं को जागृत करना है। आप स्वयं इन रीति-रिवाजों के बारे में जानें और निर्णय लें कि क्या अब समय नहीं आ गया है इन कुरीतियों से नारी को मुक्त करने का।
इस एक मान्यता के कारण घरवालों को लड़की पैदा होने पर वो ख़ुशी नहीं होती जो लड़के के जन्म पर होती है। इस परम्परा को बनाए रखने के लिए दामाद (लड़की के पति) को उसकी पत्नी के माता- पिता के मरणोपरांत के संस्कारों में शामिल नहीं किया जाता है, और लड़कियों के लिए तो इन संस्कारों को करना पूर्णतया: वर्जित है।
यह एक ऐसा रीति-रिवाज़ है जिसके आधार पर अप्रत्यक्ष रूप से लड़कियों को अपने माता-पिता के घर एवं सम्पत्ति से बेदखल करने का प्रमाण दे दिया जाता है और लड़कियों को उनकी जननी के घर में ही मेहमान का दर्जा दे दिया जाता है।
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अपने शरीर को अलंकृत करने की स्वतंत्रता न होने का अर्थ है एक ऐसी जीवित मूर्ति बनके जीवन बिताना जिसकी इच्छा एवं भावनाओं का कोई महत्व नहीं।
शादी के बाद महिलाओं के लिए पति के लम्बी आयु के लिए व्रत रखना आवश्यक है। किन्तु ऐसा कोई नियम पुरुषों पर लागू नहीं होता। पति की लंबी के लिए व्रत करना एक सुंदर परंपरा है, पर यह तब गलत लगती है जब पत्नी की लंबी आयु के लिए ऐसा कोई व्रत नहीं होता।
आज भी महिलाओं से माहवारी के दिनों में अछूत जैसा व्यवहार किया जाता है। दक्षिण भारत के मंदिरों के बाहर बोर्ड लगा होता है कि मासिक चक्र से गुजर रही महिलाओं का मंदिर में प्रवेश वर्जित है, जबकि इसी मासिक चक्र की प्रक्रिया पर जीवन का चक्र निर्भर करता है।
इस मंदिर में महिलाओं का प्रवेश वर्जित है। एक महिला द्वारा 2015 में शनि देव को तेल चढ़ाने पर वहां के पंडित द्वारा मंदिर का शुद्धिकरण करवाया गया। यह महिलाओं के व्यक्तिगत अधिकार का हनन है।
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सुहागन महिला को शुभ मानना और पति के न रहने पर उसे शुभ आयोजनों से दूर रखने का नियम एक महिला का अपमान है और इस तरह के नियम महिला में हीन-भावना भर देते हैं। इस नियम के तहत एक विधवा अपने ही बेटे-बेटी के विवाह सम्बन्धी रीति-रिवाजों में भी भाग नहीं ले सकती।
आज भी गाँवों में महिलाओं के लिए शादी के बाद अपने पति के सामने भी घूंघट करना आवश्यक है। अपनी पसंद के कपड़ा पहनने की भी आज़ादी न होना महिलाओं को पुरुषों के अधीन रखने का षड्यंत्र है।
कन्यादान की प्रथा महिला को पुरुष के अधीन बनाकर उसको उसके प्रति समर्पित रहने के नियम की ओर संकेत करती है। किन्तु पुरुषों का दान नहीं किया जाता है। यानि वह एक स्वछन्द सत्ता है।
कन्यादान की प्रथा लड़की को एक निर्जीव वस्तु के समकक्ष लाकर खड़ा कर देती है, मानो वह कोई वस्तु हो जिसका दान संभव है। इस प्रथा से लड़की का पितृ संपत्ति पर सारा अधिकार समाप्त हो जाता है। साथ ही, यह भी अजीब रिवाज है कि कन्यादान का अधिकार केवल पिता को या घर के अन्य पुरुष को प्राप्त होता है, लड़की की माँ को नहीं।
उपनयन संस्कार हिन्दू रीति-रिवाजों के 16 संस्कारों में 10 वाँ संस्कार है जिसके तहत लड़के को गुरु के पास शिक्षण के लिए ले जाया जाता है। इस संस्कार को ब्राह्मण बालक के लिए 8 वें वर्ष में, क्षत्रिय बालक के लिए 11 वें वर्ष में और वैश्य बालक के लिए 12 वें वर्ष में सम्पन्न करने का रिवाज़ है। किन्तु स्त्रीयों के लिए इस रिवाज़ में कोई स्थान नहीं है। अर्थात उनको शिक्षा के अधिकार से वंचित रखा गया है।
प्रत्येक धर्म के अपने रीति-रिवाज़ होते है, जिनका पालन करना उस धर्म की गरिमा को बनाए रखने के लिए आवश्यक होता है। किन्तु यदि कोई भी रीति-रिवाज़ किसी वर्ग विशेष के व्यक्तिगत स्वतंत्रता का हनन करती है, तो उस धर्म एवं समाज में कुरीतियों का जन्म होता है।
इन कुरीतियाँ को परम्परा बनने से रोकने के लिए ऐसे रीति-रिवाजों के खिलाफ उस वर्ग का जागरूक होना एवं अपनी व्यक्तिगत स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करना आवश्यक हो जाता है। हमें आशा है कि महिलाएं अपने अधिकारों को समझेंगी और ऐसी कुरीतियों के खिलाफ लड़ेंगी।
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