माउंट आबू के दिलवारा जैन मंदिर अपने विशिष्ट कलात्मक कार्य के लिये विश्वभर में काफी प्रसिद्ध हैं। विशेषज्ञों का मानना है, कि वास्तुकला की दृष्टि में यह जैन मंदिर आगरा के ताज महल से भी आगे है। इन मंदिरों की मनमोहक वास्तुकला व बेहतरीन संगमरमर नक्काशी मानव के अद्वितीय शिल्प कौशल को दर्शाते है। यह मंदिर बाहर से किसी अन्य मंदिर की तरह ही सामान्य रूप लिये हुए है, लेकिन इनके मुख्य द्वार को देखते ही वास्तुकला के उत्कृष्ट कार्य की झलक मिल जाती है। इन मंदिरों के चारों तरफ हरी भरी पहाडि़यॉ बहुत ही सुखद अनुभव कराती है।
दिलवारा जैन मंदिरों का निर्माण ग्यारवीं से तेरवीं शताब्दी के बीच चालुक्य वंश के शासनकाल में हुआ था। यह मंदिर जैन आस्था का एक प्रमुख केंद्र है। इन मंदिरों की सफेद संगमरमर से निर्मित दीवारों, खम्भों व द्वारों को जिस तरह नक्काशी कर तराशा गया है, वो अभूतपूर्व एवं अतुल्यनीय है। यह ध्यान देने वाली बात है कि, उस समय बिना किसी आधुनिक उपकरणों की सहायता से इन बड़े-बड़े संगमरमरों को हाथी की पीठ पर रखकर करीब 1,200 मीटर की ऊॅचाई पर ले जाया गया था।
दिलवारा मंदिर परिसर में पाँच मंदिर है, जिनमें पाँच जैन तीर्थंकरों के मूलनायक के रूप में प्रतिष्ठित किया गया है।
यह मंदिर यहाँ का सबसे प्राचीन मंदिर है और इसमें जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर श्री आदिनाथ जी को मूलनायक के रूप में स्थापित किया गया है। इसका निर्माण गुजरात के सोलंकी शासक के मंत्री विमल शाह द्वारा 1031 ईसवीं में करवाया गया था। मंदिर के भीतर कई जैन संतों की आकृतियों को संगमरमर पर बारीक काम करके उकेरा गया है। मंदिर के बाहर खुला आंगन चारों तरफ से गलियारों से घिरा हुआ है, जिसमें संगमरमर की सुंदर नक्काशी की गई है। गुडा मंडप, एक बड़ा-सा हाल है जिसमें श्री आदिनाथ भगवान के कई चित्रों को उकेरा गया है। यह मंडप मंदिर के आकर्षण को और भी बढ़ाता है।
इस मंदिर में 22वें तीर्थंकर श्री नेमिनाथ जी को मूलनायक के रूप में स्थापित किया गया है। इसका निर्माण तेजपाल और वास्तुपाल नामक दो भाइयों के द्वारा सन् 1230 में करवाया गया था। मंदिर के मुख्य कक्ष या रंग मंडप के केंद्र में एक गुंबद है, जिसमें छोटी-छोटी 72 तीर्थंकरों की मूर्तियों को उकेरा गया है। साथ ही इसके नीचे 360 जैन संतों की मूर्तियों को भी तराश कर बनाया गया है।
यह तीन मंजि़ला मंदिर इस परिसर के अन्य मंदिरों की तुलना में सबसे ऊँचा है। इसका निर्माण मांडलिक द्वारा 1458-1459 के बीच में करवाया गया था। भूतल पर मुख्य कक्ष की चारों दिशाओं में चार बड़े मंडपों को बनाया गया है। मंदिर की बाहरी दीवारों पर ग्रे बलुआ पत्थरों को तराश कर मूर्तियों को अंकित किया गया है।
इस मंदिर में जैन धर्म के चौबीसवें तीर्थंकर श्री महावीर स्वामी को मूलनायक के रूप में स्थापित किया गया है। इस मंदिर का निर्माण 1582 ईसवीं में हुआ था। यह मंदिर अन्य मंदिरों की तुलना में छोटा है। मंदिर के बरामदे की ऊपरी दीवारों को सिरोही शिल्पियों के द्वारा मनमोहक चित्रों से सजाया गया है।
इस मंदिर का निर्माण भीम शाह, जो गुजरात शासकों के यहाँ मंत्री थे, के द्वारा कराया गया था। इस मंदिर में पंचधातु की श्री आदिनाथ जी या ऋषभदेव जी की विशाल मूर्ति को मूलनायक के रूप में स्थापित किया गया है। इस मंदिर की सभी मूर्तियों के निर्माण के लिए पीतल का मुख्यत: से उपयोग किया है, इसलिए इस मंदिर को पित्तलहार मंदिर कहते हैं। इस मंदिर में भी गुडा मंडप, गर्भगृह व नवचौकी का निर्माण किया गया है।
तो जैन वास्तुकला एवं भारतीय संस्कृति की इन अनमोल धरोहारों को देखने आप आवश्य ही जाएं ।
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