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“अबीर-गुलाल”: होली के रंगों से ओतप्रोत एक प्रेम कहानी

सुबह सवेरे धानी अनायास अपने चेहरे पर खिड़की से आती धूप की चौंध  से  उठ बैठी। पार्श्व में पति अर्पित अभी तक गहरी नींद में सोए हुए थे। तभी धानी को ख्याल आया, “अरे आज तो होली है।” और होली के नाम से उसके होठों पर एक मीठी मुस्कान तैर आई और मन में खुशी की तरंगें जगने लगीं।

उसने मोबाइल में समय देखा, सात  बज चुके थे।  उसने पति को झकझोर कर जगाया और बोली, “उठिए जी, कब तक सोएंगे? आज होली है जी। भूल गए?”

होली शब्द सुनकर अर्पित ने चौंक  कर अपनी आंखें खोली और कुछ क्षणों में चैतन्य होते हुए उन्होंने पत्नी को खींच कर अपने सीने पर गिरा लिया और उसकी आंखों में झांकते हुए उसके कानों में बुदबुदाए,  “अपनी पहली मुलाक़ात की पच्चीसवीं वर्षगांठ बहुत बहुत मुबारक हो,”  और उन्होंने एक मयूरपंखी स्नेहचिह्न उसके कपोल पर जड़ दिया। फिर  पत्नी को हौले से अपनी बांहों के घेरे में समेटते हुए  उससे बोले, “मुझे यकीन नहीं हो रहा, हमारी पहली मुलाकात को आज 25 साल गुज़र गए। ऐसा लगता है जैसे कल की ही बात हो।”

कि तभी दरवाजे पर उनकी पोती की चहक  भरी आवाज़  सुनाई दी, “दादू, दादी दरवाज़ा  खोलो।” 

“गुड मॉर्निंग दादी दादू।”

“गुड मॉर्निंग मेरी गुड़िया।”

तभी पोती के पीछे पीछे उनकी बहू बेटे आ गए और दोनों  ने धानी और अर्पित जी को होली की शुभकामनाएं देते हुए उनके चरण स्पर्श कर उनका आशीर्वाद लिया। 

“पीहू, तुम भी दादी  और दादू  के पैर छूकर आशीर्वाद लो। चलो बेटा। आज होली है बिटिया।”  पीहू ने उनके चरण स्पर्श किए और धानी ने अपनी पोती को अपने हृदय से लगा लिया।

कुछ ही देर में बेटे बहू के साथ चाय पीकर धानी ने बहू  से कहा, “बेटा,  यह बताओ,  नाश्ते में आज क्या बनाएं? वैसे तो कल की दाल और आलू की कचौड़ियां  खूब रखी हैं। तुम उन्हें खाओगी या और कुछ बनाऊं? शौर्य को तो कचोड़ियां  बहुत पसंद हैं। वह तो कचौड़ी ही खायेगा।”

 “जी मम्मी जी, मुझे भी आपके हाथों की दाल और आलू की कचौड़ियां  बेहद पसंद हैं। मैं तो नाश्ते में बस वही खाऊंगी आपके बनाए हरी मिर्च के अचार के साथ। कितनी टेस्टी बनी हैं,  और आपके हाथ का मिर्च का अचार। उफ़, उसका तो कोई मुक़ाबला ही नहीं।”

तभी धानी ने बहू से कहा, “चल बेटा, मुझे वो नए काँच का सेट दे दे। मैं उसमें गुजिया, लड्डू,बर्फी और नमकीन लगा दूं। कॉलोनी के लोग रंग खेलने आते ही होंगे।” 

तभी कुछ ही देर में कॉलोनी के पड़ोसियों की उनके दरवाजे पर दस्तक हुई।  सब ने एक दूसरे को अबीर गुलाल   लगाकर हर्षोल्लास से होली खेली। चंग की थाप पर खूब नाच गाना हुआ। स्वादिष्ट पकवानों का लुत्फ़ लिया गया।  कॉलोनी के पुरुष महिलाओं के साथ रंग खेलने के  बाद, नहा धोकर और लंच लेकर दोपहर में धानी पति के साथ अपने कमरे में आराम कर रही थी।

अर्पित  तो कुछ ही देर में खर्राटे लेने लगे, लेकिन आज धानी  की आंखों में नींद नहीं थी । तभी खिड़की से शीतल फ़ाल्गुनी बयार का मंद झोंका  उसके मन प्राणों को सहला गया। खिड़की के बाहर पड़ोस के एक युवा दंपत्ति एक दूसरे को रंग लगा रहे थे, जिन्हें देखकर पुरानी मधुर  यादों की  बासंती पुरवाई उसके ह्रदय कपाटों को खड़का गयी, और वह उसके साथ बरबस बह  निकली।

वह तीन बहनों में सबसे छोटी थी।  स्वाभाव की बेहद हिम्मती और निडर। उसकी प्रकृति  की यह खासियत देख माता-पिता उसे बचपन से कहते आए थे,  “तू तो हमारा बेटा है बेटी नहीं।” उन्होंने उसे बड़े होने तक लड़कों के कपड़े पहनाए। वे उससे लड़के की तरह बातचीत करते। सो अधिक  आयु  होने पर भी उसका यह स्वाभाव बना रहा,  लेकिन स्वभाव से जहां वह बिल्कुल एक लड़का थी, वहीं  डील डौल से वह बिल्कुल छुईमुई सी नाजुक, क्षीणकाया  अप्रतिम सौंदर्य की स्वामिनी थी।  उसे देख  यूं  प्रतीत होता मानो फूंक लगाते ही उड़ जाएगी। 

 कॉलेज पहुंचने पर मां बाबूजी ने उससे कॉलेज आने जाने के लिए स्कूटी लेने के लिए कहा, लेकिन वह मन ही मन ठान बैठी थी कि वह चलाएगी तो मोटरसाइकिल। बचपन से उसकी तमन्ना थी कि वह लड़कों की तरह अपनी बाइक खरीदे  और चलाए। मां बाबूजी  उससे कह कह कर हार गए, मोटरसाइकिल उस जैसी कोमल काया के लिए ठीक नहीं रहेगी। लेकिन वह बाइक खरीदने की जिद पर अड़ी रही, और अंत में मां बाबूजी को अपनी लाडली बिटिया की जिद  के सामने हथियार डालने ही पड़े ।

जब भी वह मोटरसाइकिल लेकर घर से निकलती, लोगों की निगाहें उठ जातीं।

 उस दिन भी वह अपनी बाइक  पर तेज रफ़्तार से अपनी सहेली के घर जा रही थी, कि रास्ते में कुछ बाइक सवार लड़कों ने उसे होली के दिन अकेली मोटरसाइकिल पर जाते देखा तो वे उस पर छींटाकशी करते हुए उसका पीछा करने लगे। तभी अर्पित ने उसे देखा और वह उसकी मदद करने की मंशा से धीरे-धीरे उसके साथ अपनी बाइक पर चलने लगे।  उन्होंने  उसके साथ चलते चलते उससे नितांत अपरिचित होते हुए भी कुछ इस लहजे में थोड़ी बातचीत की गोया वह उसके परिचित हों। अर्पित  जैसे छःफ़ुटिया, धाकड़ शख्सियत के नौजवान को देखकर वे लड़के फौरन ही पतली गली से निकल लिए।

सहेली के घर तक का रास्ता तय करते-करते दोनों ने एक दूसरे का परिचय लिया। अर्पित उसके घर के सामने वाली गली में रहते थे। होली के दिन उसे उन शोहदों  से बचाने के लिए धानी मन ही मन उनकी बेहद कृतज्ञ थी।

समय के साथ उनकी जान-पहचान बढ़ी। वह स्वयं अर्पित की सौम्य शालीन शख्सियत से बेहद प्रभावित थी। कि एक  दिन अर्पित के घर से उसके लिए उनका रिश्ता आया।

 अर्पित प्रतिष्ठित परिवार से थे। अच्छे पद पर थे।  उसकी स्वयं की भी विवाह की उम्र हो आई थी।  उसके और उसके माता-पिता की ओर से रिश्ते के लिए जल्दी हां हो गई। अर्पित तो शायद उसे पहली  मुलाक़ात में ही दिल दे बैठे थे। वह भी उनकी सहृदयता और मृदु स्वाभाव की कायल हो गई  थी। 

दोनों पक्षों के बीच शादी की बात तय  हो जाने पर उस दिन वह पहली बार अर्पित से एकांत में मिलने जा रही थी। अर्पित ने उसे दोपहर को अपने घर से कुछ दूर  एक पार्क में बुलाया था। उस दिन भी होली का ही दिन था।

उसे आज तक अच्छी तरह याद है, अर्पित  उसे पार्क के गेट पर ही मिल गए थे। धड़कते आशान्वित हृदय से वे दोनों पार्क में कुछ पेड़ों के झुरमुट के पीछे बनी बेंच पर बैठ गए।  तभी अचानक अर्पित ने अपनी जेब से निकालते हुए  उसके ऊपर  गुलाब की पंखुड़ियां बिखेर दीं, और  उससे बोले, “हैपी  होली धानी।”

वह ऊपर से नीचे तक गुलाबों की मनमोहक सुगंध से महक गई। 

सुखद आश्चर्य से अभिभूत धानी बस उन्हें अपलक देखती रह गई। तभी उन्होंने अपने घुटने पर बैठते हुए उसे एक बेहद खूबसूरत, लाल सुर्ख गुलाब थमाया और  उससे बोले, “लव यू धानी।  इतने दिनों से इसी दिन का तो वेट कर रहा था। बस अब तुम जल्दी से मेरे घर आ जाओ। अब तुम्हारे बिना रहा नहीं जाता।”

 बस इसके बाद उन दोनों की प्रेम कहानी रफ़्ता-रफ़्ता आगे बढ़ चली जिसकी परिणति उनके विवाह में हुई।

अर्पित के साथ बीते पिछले 25 वर्ष जीवन के सुखदतम वर्ष थे।  कि तभी  अर्पित ने आंखें खोलीं और उसे विचारों में मग्न देख उससे बोले, “क्या सोच रही हो धानी?  देखो ना, पता ही नहीं चला तुम्हारे साथ ये  25 साल कैसे हंसते झगड़ते, पलक झपकते ही बीत गए,” और उन्होंने हाथ बढ़ाकर उसके हाथों पर अपने हाथ रख दिए।

रूहानी प्यार की मौन  नि:शब्द अनुभूति में दोनों पति-पत्नी आकंठ सराबोर हो उठे।

Renu Gupta

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