हिन्दू धर्म में मान्यता है कि मानव शरीर पंच तत्वों के मिश्रण से बना हुआ है। ये तत्व हैं -जल, वायु, आकाश, पृथ्वी एवं अग्नि। जिसमें से जल का संतुलन शरीर में बनाए रखने के लिए हमें जल को ग्रहण करना पड़ता है। वायु से श्वसन क्रिया होती है। पृथ्वी से उर्जा प्राप्त होती है।
आकाश वर्षा के द्वारा पृथ्वी का पोषण करता है। किन्तु अग्नि अपने आप हमारे प्रयत्नों के फलस्वरूप उत्पन्न होती है।
अग्नि में सृष्टि के सभी वस्तुओं को भस्म करने की क्षमता होती है। इसलिए हिन्दू धर्म में अग्नि को देव स्वरुप मानते हैं। इसी कारण हिन्दू धर्म में यज्ञ, विवाह एवं अंतिम संस्कार के अवसर पर अग्नि प्रज्वलित करके उसकी पूजा की जाती है।अग्नि का महत्व सभी संस्कारों में भिन्न- भिन्न होता है।
आइये जाने हिन्दू विवाह में अग्नि को साक्षी मानने का क्या कारण है?
विवाह में अग्नि को साक्षी मानने का महत्त्व
वैदिक ग्रंथों के अनुसार सृष्टि की देखभाल का कार्य विष्णु भगवान आज्ञा से संचालित होता है। चूँकि अग्नि में सृष्टि के सभी वस्तुओं को अपने अन्दर समाने की क्षमता होती है। इसलिए अग्नि को विष्णु भगवान का मुख माना जाता है। हिन्दू धर्म में विवाह की शुरुआत अग्नि को साक्षी मानकर प्रारंभ की जाती है और विवाह के दौरान पहला मन्त्र मंगलम भगवन विष्णु से प्रारंभ किया जाता है।
जीवन के तीसरे और अहम चरण की शुरुआत करने से पूर्व देवताओं की आज्ञा लेने एवं उनका आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए मन्त्रों का उच्चारण किया जाता है। चूँकि सृष्टि के रचियता का कोई आकार नहीं है। जीवन नाटक में हमने विष्णु, शिव, दुर्गा आदि नामों का प्रयोग संबोधन मात्र के लिए किया जाता है। इसलिए देवताओं की तृप्ति एवं आशीर्वाद पाने के लिए निराकार मन्त्रों का उच्चारण निराकार अग्नि को साक्षी मानकर किया जाता है।
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अग्नि की परिक्रमा का कारण (विवाह के फेरे)
अग्नि की परिक्रमा करने का कारण सृष्टि की रचना एवं भरण पोषण में योगदान देने वाले सभी देवी – देवता, प्राकृतिक संपदा एवं सूक्ष्म अति सूक्षम प्राणी को विवाह के शुभ अवसर पर आमंत्रित करना एवं उनका आशीर्वाद प्राप्त करना है।
परिक्रमा करते हुए अग्नि को साक्षी मानकर वर-वधु एक दूसरे को वैवाहिक जीवन में साथ मिलकर सभी कार्यों को करने एवं सुख-दुःख , सद्कर्म-दुष्कर्म का भागीदार होने का वचन देते हैं। यदि दोनों में से कोई इन वचनों को नहीं निभाता है। तो इश्वर उसको दंड देगा। ऐसा मानकर माफ़ करते हुए वैवाहिक जीवन को जारी रखना होता है।
इस प्रकार हिन्दू धर्म में विवाह को ईश्वरीय बंधन माना जाता है। एक-दूसरे की गलतियों का दंड अग्नि देव पर छोड़ कर जीवन पर्यंत विवाह बंधन में बंधे रहने की शपथ को निभाना वर -वधु का धर्म होता है।
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