भारतीय संस्कृति एवं हिन्दू परम्परा में महिलाओं का प्रमुख परिधान साड़ी है, जिसे कई क्षेत्रों में सारी के नाम से भी जाना जाता है। प्राचीन समय से ही भारतीय परिधान में गिनी जाने वाली साड़ी सबसे लम्बा वस्त्र माना जाता है।
लगभग 5 से 6 गज लम्बा यह परिधान मात्र एक लम्बे बिना सिले हुए कपड़े से निर्मित होता है। साड़ी को मुख्यतः चोली या ब्लाउज के ऊपर लपेटा जाता है।
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भारत के भिन्न-भिन्न राज्यों में भिन्न-भिन्न प्रकार से पहना जाने वाला यह परिधान भारत की पारम्परिक वेशभूषा का अद्भुत नमूना प्रस्तुत करता है। देश के विभिन्न भागों में प्रचलित परम्पराओं, रहन-सहन के स्तर एवं वहाँ की भौगोलिक स्थिति के अनुसार वहाँ की साड़ियाँ भी भिन्न-भिन्न होती हैं।
पौराणिक काल से ही स्त्री के सम्मान को प्रदर्शित करने वाला यह परिधान इतना लम्बा होता था कि यह आसानी से स्त्रियों के शरीर को पूरी तरह से ढककर उनकी रक्षा करने के लिए पर्याप्त माना जाता था। साड़ियों का इतिहास काफी पुराना एवं यादगार है।
प्राचीन समय से ही साड़ी को भारतीय महिलाओं के श्रृंगार का एक हिस्सा माना गया है एवं कई विशेष अवसरों पर साड़ी को पहनना शुभ भी माना गया है। साड़ी भारतीय महिलाओं का पहनावा ही नहीं बल्कि उनके लिए भारतीय संस्कृति का प्रतीक भी है। आइए साड़ी के इतिहास, विभिन्न राज्यों में इसे पहने का तरीका और इसके निर्माण के बारे में जानते हैं।
साड़ी का इतिहास
प्राचीन भारतीय ग्रंथों एवं वेदों में साड़ी शब्द का विशेष महत्व बताते हुए वर्णन किया गया है। सर्वप्रथम यजुर्वेद में इसका वर्णन हुआ है। तत्पश्चात यज्ञ, हवन एवं पूजा (भगवान की आराधना) या किसी भी विशेष त्यौहार के मौके पर भी साड़ी पहनने का अत्यधिक महत्व बताया गया है, इसीलिए प्राचीन इतिहास में साड़ी को पत्नी के लिए विशेष एवं शुभ परिधान माना गया है।
पौराणिक काल से वर्तमान काल तक प्रचलित यह भारतीय परिधान भिन्न-भिन्न परिवर्तन को संजोय हुए है। सर्वाधिक लम्बा यह भारतीय परिधान पौराणिक ग्रन्थ महाभारत के समय से ही स्त्री की आत्मरक्षा का प्रतीक माना गया है।
महाभारत काल में जब दुर्योधन द्वारा भरी सभा में द्रोपदी का चीर हरण करने का प्रयास किया गया, तब भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं द्रोपदी की साड़ी को अत्यधिक लम्बा कर उसकी अस्मिता का सम्मान को बचाया था। उसी समय से साड़ी को स्त्री के सम्मान एवं रक्षा का प्रतीक माना गया है। किसी महानुभाव ने चीर हरण में दुःशाशन की व्यथा को कुछ इस तरह से व्यतीत किया:
सारी एक नारी है कि नारी एक सारी है, सारी ही यह नारी है कि नारी ही यह सारी है।
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भारतीय प्राचीन परम्परा के अनुसार भिन्न-भिन्न रीति-रिवाजों के अनुसार भिन्न-भिन्न रंगों एवं प्रकारों की साड़ी पहनी जाती है। जिस प्रकार विवाहित महिला के लिए रंगीन साड़ी एवं विधवा महिला के लिए सफ़ेद साड़ी पहनने का रिवाज है।
भारतीय विरासत की निशानी मानी जाने वाली यह परिधान प्राचीन समय से ही स्त्रियों के द्वारा पसंद किया जा रहा है। साड़ी भारतीय नारी की सादगी, सरलता, सम्मान एवं शीतलता का प्रतीक माना जाता है।
ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी से ही मूर्तियों में उकेरी गई महिलाओं की आकृतियों में स्त्रियों के कमर के ऊपर वाले सामने के हिस्से को एवं पैरों के हिस्से को साड़ी के जरिए ढका हुआ दिखाया गया है। यह इस बात का प्रतीक है कि साड़ी केवल भारतीय परिधान का हिस्सा हीं नहीं, बल्कि यह स्त्रियों का आत्म-कवच भी है, जो उनके सम्मान और चरित्र को बनाए रखता है एवं उसकी रक्षा करता है।
इसी इतिहास के चलते 12वीं सदी में भारत के उत्तरी और मध्य भाग को जीतने के पश्चात् मुसलमानों ने शरीर को पूरी तरह से ढकने की संस्कृति पर जोर दिया। जिसमें महिलाओं को ऊपर की ओर ब्लाउज़ या चोली तथा नीचे की ओर लहंगेनुमा परिधान या पेटीकोट के ऊपर साड़ी लपेटने की परम्परा प्रचलित हुई। धार्मिक परम्पराओं एवं धार्मिक संकेत चिन्हों का समावेश लिए हुए साड़ी का अपने धर्म से जुड़ाव माना जाता है।
माना जाता है कि साड़ी में प्रयुक्त रंगों के माध्यम से स्त्री अपने मन के भावों को व्यक्त करती है। अनेक लोक कलाकारों जिन्होंने समाज की विभिन्न मनमानी रूढ़ियों को समाप्त करने के लिए धर्म में परिवर्तन किया था। उन्होंने गंगा, यमुना एवं सरस्वती जैसी पवित्र नदियों के नामों का प्रयोग साड़ियों के लिए किया।
इस कला एवं नाम का इतना विस्तार हुआ कि पीढ़ी दर पीढ़ी बदलती हुई विरासतों में इसका प्रचलन आज भी है, इसीलिए साड़ियों में विभिन्न धर्मों जैसे हिन्दू, बौद्ध, जैन, इस्लाम आदि का समावेश मिलता है। प्राचीन समय से जिन-जिन देशों में धर्म अनुयायी जाते रहे है, वहाँ की कला एवं संस्कृति के मुताबिक इस परिधान की प्रिंट एवं डिजाइन में भी परिवर्तन होता रहा है। इंडोनेशिया, पाकिस्तान, श्रीलंका एवं अन्य अनेक देशों की कलाकृतियों का समावेश करते हुए इस परिधान को दिनों-दिन नवीन रूप में परिवर्तित किया जाने लगा है।
साड़ियों के विभिन्न प्रकार
भारत में भिन्न-भिन्न भौगोलिक स्थितियों एवं व विभिन्न स्थानों के अनुसार साड़ी के भी अनेक प्रकार होते हैं। इसमें मुख्य रूप से प्रचलित मध्य प्रदेश की चंदेरी साड़ी, महेश्वरी साड़ी, मधुबनी अंदाजन छपाई में उपलब्ध साड़ी, असम की मूंगा रेशम साड़ी, उड़ीसा की बोमकई साड़ी, राजस्थान की बंधेज प्रिंटेड साड़ी, गुजरात की गठोडा साड़ी, पटौला पैटर्न साड़ी, बिहार की तसर प्रिंटेड साड़ी, कांथा साड़ी, छत्तीसगढ़ी कोसा रेशम साड़ी, दिल्ली की रेशमी डिजाइनर साड़ियाँ, झारखंडी कोसा रेशम साड़ी, महाराष्ट्र की पैठनी साड़ी, तमिलनाडु की कांजीवरम साड़ी, बनारसी भरवां साड़ियाँ, उत्तर प्रदेश की तांची साड़ियाँ, जामदानी साड़ी, जामवर एवं पश्चिम बंगाल की बालूछरी साड़ियाँ एवं कांथा टंगैल साड़ियाँ हैं।
शैलियों में प्रमुख कांजीवरम, बनारसी, पटोला और हकोबा साड़ियाँ अत्यधिक प्रसिद्ध हैं। अपनी पसंद और अवसर के हिसाब से साड़ी को विभिन्न शैलियों एवं प्रकारों में बांटा गया है। इसी प्रकार साड़ियों को विभिन्न अंदाजों में पहना जा सकता है जैसे – फ्री पल्लू पैटर्न साड़ी, पिनअप साड़ी, उल्टा पल्लू, सीधा पल्लू, लहंगा शैली, मुमताज शैली और बंगाली शैली साड़ियाँ आदि।
बनारसी, महाराष्ट्रियन, पटोला एवं चंदेरी प्रिंटेड साड़ियों की अपनी एक विशेष पहचान होती है। प्राचीन समय से प्रचलित यह निम्न वर्णित परम्परागत प्रिंटेड साड़ियाँ अपनी डिजाइन और प्रिंट के कारण आज भी विश्व प्रसिद्ध हैं। आइए जानते हैं कि इन भिन्न-भिन्न प्रकार की साड़ियों की खास बातें।
बनारसी साड़ी
एक विशेष प्रकार की साड़ी मानी जाने वाली बनारसी साड़ी मुख्य रूप से शुभ अवसरों जैसे – तीज-त्योहारों एवं पूजन-हवन आदि पर पहनी जाती है। प्रमुख रूप से उत्तरप्रदेश के चंदौली, मिर्जापुर, बनारस, आजमगढ़, जौनपुर और संत रविदासनगर जिले में बनाई जाने वाली यह बनारसी साड़ियाँ विश्वप्रसिद्ध हैं। बनारस के बुनकरों द्वारा शुद्ध रेशम के कपड़े पर बनारस प्रिंट में बुनाई के साथ जरी की डिजायन के संयोजन से निर्मित होने वाली सुंदर रेशमी साड़ी को हीं बनारसी साड़ी के नाम से जाना जाता है।
प्राचीन समय में बनारस की अर्थव्यवस्था का मुख्य आधार स्तंभ बनारसी साड़ी का निर्माण एवं प्रिंट कार्य हीं था। परन्तु समय के साथ-साथ अब बनारसी साड़ी की अस्मिता और गरिमा खतरे में आ गई है। इसी कारण से दिनों-दिन इसकी खरीद में परिवर्तन आने के कारण यह बनारस की अर्थव्यवस्था को सुचारु रूप से चलाने में नाकामयाब होने लगी है। प्राचीन समय में बनारसी साड़ी की मांग अत्यधिक होने के कारण इसमें शुद्ध सोने की जरी का उपयोग किया जाता था परन्तु अब अर्थव्यवस्था की सही स्थिति को बनाए रखने के लिए बुनकरों द्वारा इसमें नकली चमकदार जरी का काम भी किया जा रहा है।
➡ उत्तर में बनारसी, दक्षिण में कांजीवरम
महाराष्ट्रियन साड़ी
महाराष्ट्र राज्य में मुख्य रूप से पहनी जाने वाली यह साड़ी महाराष्ट्र के पैठण शहर के लिए प्रसिद्ध है। इस महाराष्ट्रियन साड़ी को बनाने की प्रेरणा अजंता की गुफा में निर्मित चित्रकारियों से मिली। यहाँ महाराष्ट्रियन साड़ियों के लिए विश्व प्रसिद्ध “पैठण डिज़ायन सह प्रदर्शनी केंद्र” है। इस केंद्र में आर्डर पर निर्मित साड़ियों के साथ-साथ रेडीमेड साड़ियाँ भी मिलती हैं।
पटोला साड़ी
हस्तनिर्मित प्रिंट से बनीं हथकरघा साड़ियों की डिजाइन देखते ही बनती है। महिलाओं द्वारा पसंद की जाने वाली साड़ियों में पटोला पैटर्न साड़ियों का स्थान सर्वप्रथम है।
दोनों तरफ से प्रिंटेड यह पटोला साड़ी अपने बारीक़ पतले काम एवं शुद्ध रेशम के कपड़े से निर्मित होने के कारण लोगों द्वारा पसंद की जाती है। वेजिटेबल डाई या कलर डाई से निर्मित प्रिंट वाली इस साड़ी को डबल इकत पटोला साड़ी के रूप में भी जाना जाता है। लेकिन किन्हीं कारणों से प्राचीन बुनकरों की यह प्रसिद्ध कला अब धीरे-धीरे लुप्त सी होने लगी है।
सर्वप्रथम मुगल काल के समय भारतीय इतिहास में प्रसिद्ध इस कला को गुजरात में लगभग 250 परिवारों ने अपनाया था। पटोला साड़ी की निर्माण लागत अत्यधिक होती है परन्तु इसका सही मूल्य बाज़ारों में नहीं मिल पाता है। इसी कारण से निर्माणकर्ताओं एवं बुनकरों को हानि होती है और पटोला साड़ी का निर्माण कार्य रुक जाता है। समय के साथ-साथ यह कला समाप्त होती गई और आज हम इस प्रसिद्ध कला से अनभिज्ञ से हैं।
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माहेश्वरी साड़ी
मध्य प्रदेश राज्य के महेश्वर में स्त्रियों द्वारा सर्वाधिक पहनी जाने वाली माहेश्वरी साड़ियाँ अत्यधिक प्रसिद्ध है। प्राचीन समय में यह साड़ियाँ केवल सूती कपड़े से ही निर्मित की जाती थी परन्तु समय के साथ-साथ इस कला में फैशन के अनुसार परिवर्तन आता गया। अब माहेश्वरी साड़ियों में सूती साड़ियों के अतिरिक्त उच्च गुणवत्ता वाली रेशमी साड़ियाँ भी बनाई जाने लगी हैं। लगभग 250 वर्ष पुरानी माहेश्वरी साड़ियों का यह इतिहास अमर है। महेश्वर में सन 1767 में कुटीर उद्योग की स्थापना होल्कर वंश की महान शासक देवी अहिल्याबाई होल्कर ने करवाई थी। अहिल्याबाई होल्कर ने गुजरात एवं भारत के अन्य शहरों से बुनकरों के परिवारों को यहाँ लाकर बसाया। उन्होंने बुनकरों की कला को प्रोत्साहन दिया और माहेश्वरी साड़ियों को विश्व स्तर तक पहुँचाया।
चन्देरी साड़ी
आज भी हथकरघे पर हस्तनिर्मित प्रिंट की यह चन्देरी साड़ियाँ चंदेरी की विश्व प्रसिद्ध साड़ियाँ हैं। प्राचीन समय से ही चंदेरी साड़ियों का अपना एक अलग समृद्धशाली इतिहास रहा है। राजा-महाराजाओं के राजघरानों में पहनी जाने वाली यह चंदेरी प्रिंटेड साड़ियाँ इसके बढ़ते प्रचलन के कारण आज की पीढ़ी में आम लोगों तक पहुँच चुकी है।
एक चन्देरी साड़ी के निर्माण में लगभग एक साल का वक्त लग जाता है। ऐसा माना जाता है कि इसे बाहरी एवं बुरी नजर से बचाने के लिए चन्देरी साड़ी बनाने वाले कारीगर हर मीटर कपड़े पर काजल का छोटा टीका लगाते हैं। प्राचीन समय में चन्देरी साड़ियों पर केवल पुरानी प्रिंट एवं डिज़ायन ही बनाई जाती थी लेकिन समय और फैशन में परिवर्तन के दौर में अब इनकी डिजाइनों एवं प्रिंट में भी नए-नए प्रयोग किए जा रहे हैं। चंदेरी साड़ियों की खास बात यह है कि यह साड़ियाँ दिखने में सुन्दर एवं आकर्षक तो होती ही हैं इसके साथ ही यह वजन में भी बहुत हल्की होती है। इसी कारण से महिलाएँ इन्हें आसानी से रोज पहनने के लिए प्रयोग कर सकती हैं।
कैसे बनती हैं साड़ियाँ?
साड़ियों की कशीदाकारी एवं इन पर की गई प्रिंट का अपना एक इतिहास है। लगभग 3500 साल पुराना यह इतिहास भारतीय गांवों एवं ग्रामीण क्षेत्रों से जुड़ा हुआ है। इस परिधान को बनाने में बहुत अधिक समय लगता है। एक विशेष भारतीय शैली से निर्मित यह परिधान बहुत ही आकर्षक एवं परम्परागत प्रिंट में बाज़ारों में उपलब्ध है। इस परिधान पर उकेरी गई विशेष शैली का इतना महत्व है कि इस परिधान की कला और इसे पहनने वालों में साम्यता दिखाई देती है।
अधिकतर इस परिधान को पहनने वाली सभी स्त्रियाँ धर्म और आस्था पर अपनी अलग राय रखती हैं परन्तु इस परिधान में उकेरी गई कला आकृतियाँ उनकी संस्कृति एवं आस्था का प्रमाण अवश्य देती हैं।
साड़ी के निर्माण के लिए सर्वप्रथम कपड़े का लगभग 5 से 6 गज लम्बा थान लिया जाता है। अब इस थान के कपड़े पर सुन्दर प्रिंट में जिसमें साड़ी को प्रिंट किया जाना है, बुनाई की जाती है। बुनाई के साथ-साथ साड़ी में जरी, गोटा-पत्ती, लेस, मोर प्रिंट आदि की प्रचलित डिजायन की भरावन की जाती है। बुनाई के लिए विभिन्न प्रिंट का संयोजित रूप भी काम में लिया जा सकता है।
अंत में प्रिंट और बुनाई से निर्मित होने वाली सुंदर साड़ी को किनारों से पलटकर साड़ी का रूप दे दिया जाता है। विभिन्न अद्भुत कलाकृतियों एवं बुनाई से उकेरी हुई प्रिंट से बनाई गईं साड़ियाँ, प्राचीन काल में हथकरघों के जरिए हाथ से निर्मित की जाती थी। भारत में निर्मित इन हस्तनिर्मित साड़ियों पर पारम्परिक प्रिंट एवं भारतीय कलाओं का प्रदर्शन काफी अच्छे से उभरकर सामने आता है। इसी कारण से यह साड़ियाँ सदियों से अपनी पहचान भारत के मुख्य परिधान के रूप में बनाए हुए हैं।
आज भी भारतीय साड़ियों पर निर्मित आकृतियाँ एवं इन पर की गई कारीगरी भारतीय बुनकरों की कला का प्रदर्शन करती हुई विश्वभर में प्रसिद्ध हैं।
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