भारतीय साहित्य में महिला पात्रों को केंद्रित कर बहुत से उपन्यास लिखे गए हैं, इनमें से कुछ रचनाएं इस प्रकार कालजयी हो गई हैं कि इनके लेखकों को भी इसका गुमान नहीं रहा होगा कि उनकी रचनाएं आने वाले दशकों तक उसी तरह पढ़ी और अनुभूत की जाती रहेंगी, जिन संवेदनाओं के साथ उन्होंने इन्हें कागज पर उकेरा है।
स्त्री, उसका संघर्ष, उसके अंतर्मन का द्वंद्व, जंजीरे बंधे पैरों से आसमान की उड़ान की चाहत और ऐसे ही कई मनोभावों को रेखांकित और चित्रांकित करती ये रचनाएं आज की स्त्री को भी नई रोशनी देने में सक्षम हैं। हर स्त्री को इस रचना संसार से गुजरना चाहिए। प्रस्तुत हैं भारतीय साहित्य में महिला प्रधान रचनाओं में से कुछ अनमोल मोती। जानिए, इन्हें आपको एक महिला होने के नाते क्यों पढ़ना चाहिए।
१. मित्रो मरजानी
कृष्णा सोबती के इस चर्चित उपन्यास का केंद्रीय पात्र है समित्रावंती यानी मित्रो, जो थोड़ी मुंहफट है और थोड़ी सहज भी। कोई भी उसे गलत लगता है तो वह उसके बारे में बोलने से जरा भी नहीं चूकती। वह अपनी सास, देवरानी-जिठानी के साथ-साथ परिवार के पुरुष सदस्यों को भी आड़े हाथों लेती है।
दरअसल 60 के दशक में रचा गया मित्रो का चरित्र भारतीय समाज की आज की स्त्री की मनोदशा का भी चित्रण बखूबी करता है। वह स्त्री जिसे अपनी इच्छाएं पूरी करने का कोई हक नहीं है, खासकर यौनिक इच्छाएं प्रकट करना तो उसके लिए सदैव वर्जित है लेकिन मित्रो ऐसी नहीं है। वह बहुत ही साहस के साथ अपनी दैहिक, सामाजिक और पारिवारिक जरूरतों को पूरा करने के लिए आवाज उठाती है, उनके लिए झगड़ती भी है।
कृष्णा सोबती ने इस उपन्यास के माध्यम से भारतीय समाज के एक बहुत बड़ा सवाल किया था कि आखिर शुचिता के नाम पर एक स्त्री ही अपनी दैहिक इच्छाएं की बलि क्यों दें।
कथानक
गुरुदास लाल के तीन बेटें होते हैं बनवारी लाल, सरदारी लाल और गुलजारी लाल। इन तीनों की शादी हो चुकी होती है और इनमें से सरदारी लाल की पत्नी ही समित्रावंती यानी ‘मित्रो’ है। मित्रो इतनी बेबाक है कि वह कुछ भी कहीं डालती है। सरदारी लाल मित्रो की शारीरिक जरूरतें मित्रो के हिसाब से पूरा नहीं कर पाता और मित्रो अपनी इस सेक्सुअल डिजायर को बड़ी ही बेबाकी से बयां करती है।
२. मुझे चांद चाहिए
एक औरत होने का मतलब किसी की मां, बहन, बेटी या बुआ के रूप में पहचाना जाना नहीं है। उसका अपना एक वजूद है और उस वजूद को दुनिया में पहचान मिलनी चाहिए। सुरेंद्र वर्मा के लिखे मुझे चांद चाहिए उपन्यास की नायिका वर्षा वशिष्ठ की कहानी बहुत सी लड़कियों को अपनी कहानी लगेगी, जो किसी छोटे से शहर में रहकर चांद को छूने की तमन्ना रखती हैं।
वर्षा तमाम विपरीत परिस्थितियों में जीती है। वह अपना नाम तक बदल लेती है और एक दिन घर से निकल जाती है, अपने रास्ते खुद तय करने। जिस समाज में लड़कियों को अपनी इच्छाओं को व्यक्त करने की आजादी नहीं है, जहां उसे मर्यादा के तमाम बंधनों में कसकर जकड़ कर रखा जाता है, उन बंधनों को तोड़ना किसी भी लड़की के लिए आसान नहीं है लेकिन वर्षा ऐसा बहुत कुछ करती है, जिसे हमारा समाज सामान्य परिस्थितयों में स्वीकार नहीं करता है।
कथानक
एक छोटे से शहर शाहजहांपुर में रहने वाले यशोदा शर्मा के सपने बहुत बड़े हैं। वह अपना नाम तक बदल कर वर्षा वशिष्ठ कर लेती है। एक दिन कॉलेज में एक नाटक में हिस्सा लेते हुए उसे यह अहसास होता है कि वह तो बनी ही रंगमंच की दुनिया के लिए है। वह अपने घर से निकल कर नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा तक पहुंच जाती है और आखिरकार फिल्मों में एक सफल अभिनेत्री बनती है। वह इतनी विद्रोही स्वभाव की है कि अपने प्रेमी से शादी से इंकार कर देती है लेकिन आखिर में उसके बच्चे की मां बनती है, बिना शादी किए।
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३. प्रथम प्रतिश्रुति
मूल रूप से बंग्ला भाषा में लिखे गए इस उपन्यास के लिए आशापूर्णा देवी को ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला था। इस उपन्यास का केंद्रीय पात्र है सत्यवती, जिसके कुछ सपने हैं, इच्छाएं हैं लेकिन उसका बाल विवाह हो जाता है।
स्त्रियों की समस्या, उनके संघर्ष और उनकी हार न मानने की मानने की जीजिविषा को प्रकट करता है उपन्यास प्रथम प्रतिश्रुति।
सत्यवती अपने बच्चों को खासकर बेटी को हर उस यातना से बचाना चाहती है, जो उसने भोगी हैं। वह अक्सर मौन रहती है लेकिन उसकी निर्णय क्षमता अद्भुत है। वह अपने आत्मसम्मान के लिए तो लड़ती हैं पर आधुनिकता के नाम पर मर्यादा को कभी नहीं लांघती। सत्यवती और उसके बाद उसकी बेटी सुवर्णलता का चरित्र बताता है कि भारतीय समाज में नारी सशक्तिकरण धीरे-धीरे कैसे आगे बढ़ा था।
कथानक
सत्यवती के पिता जमींदार हैं, जो घर में ही बेटी को शिक्षा देते हैं लेकिन सत्यवती का बाल विवाह हो जाता है। इसके बाद वह घर की चारदीवारी में बंद हो जाती है।
बड़े संघर्ष के बाद वह किसी तरह से अपने पति को नौकरी के लिए कलकत्ता ले जाती है। उसके दो बेटे और एक बेटी है। पति के साथ बेटी गांव जाती है तो उसका बाल विवाह सत्यवती की इच्छा के विरुद्ध उसकी सास प्रपंच रचकर कर देती है, जिसके बाद सत्यवती बिना किसी को बताए घर छोड़कर काशी चली जाती है।
४. कृष्णकली
इस उपन्यास की लेखिका शिवानी ने इसे सबसे पहले धर्मयुग पत्रिका में एक शृंखला के रूप में लिखना शुरू किया था। पाठक इस उपन्यास के मुख्य पात्र कृष्णकली से इस कदर जुड़ गए थे कि इसके आखिरी भाग में जब कृष्णकली मरी तो हंगामा खड़ा हो गया था।
कृष्णकली की कली ने हार मानना नहीं सीखा, वह टूट सकती है, लेकिन झुक नहीं सकती। इस उपन्यास में जहां एक स्त्री की व्यथा का वर्णन है तो दूसरी ओर उसके चारों ओर लिपटे सामाजिक बंधनों को तोड़ने की कसमसाहट भी। इस उपन्यास की भाषा शैली ऐसी है कि निरंतर पढ़ने की जिज्ञासा बनी रहती है।
बार-बार ठुकराए जाने का दर्द महसूस करने वाली कली बाहर से एक चुलबुली लेकिन अंदर से एक सहमी सी लड़की है, जिसने बड़ी हिम्मत से सब कुछ सहा है। उसके तिरस्कार, उसकी वेदना से आप इस कदर जुड़ जाएंगे कि ये आपको अपनी सी लगेंगी। वहीं कली की पालने वाली मां पन्ना के रूप में शिवानी ने एक वेश्या के जीवन को बेहद भावपूर्ण तरीके से पाठकों के सामने रखा है।
कथानक
‘कली कुष्ठ रोग से पीड़ित माता ‘पार्वती’ तथा पिता ‘असदुल्ला’ की सन्तान है।पार्वती उसे मार डालना चाहती है लेकिन डॉ. पैद्रिक की सहायता से वेश्या पन्ना कली को अपने पेशे के बारे में सच्चाई बताए बिना उसका पालन- पोषण करती है। है लेकिन आखिरकार एक दिन कली को सच्चाई पता लग जाती है।तमाम दुश्चिंताओं, घटनाओं और काम करने के बाद बावजूद उसका चरित्र संयमित रहता है।वह प्रवीर से प्रेम करती है लेकिन प्रवीर की सगाई कहीं और हो जाती है।आखिर में कली इस दुख को झेल नहीं पाती और मर जाती है।
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५. रसीदी टिकट
अमृता प्रीतम की बहुचर्चित आत्मकथा रसीदी टिकट एक स्त्री की कहानी है, जिसके विद्रोही व्यक्तित्व को यह दुनिया आसानी से पचा नहीं पाई। एक ऐसी आत्मकथा,जो इसे पढ़ने वाली हर स्त्री के भीतर अपनी महत्वाकांक्षा पूरी करने के जज्बे को जन्म देती है।
अमृता ने शादीशुदा होते हुए भी शायर साहिर लुधियानवी से प्यार किया और फिर इमरोज के साथ रहीं। इमरोज के साथ उनका प्यार दुनियावी न होकर रुहानी था। जीवन में प्रेम की इस बारिश को उन्होंने बगैर किसी लागलपेट के अपनी इस आत्मकथा में बहुत ही सुकून भरे अंदाज में प्रस्तुत किया है। रसीदी टिकट का हर पन्ना इस बात का साक्षी है कि कैसे अमृता ने हर स्त्री के डर, उसके प्यार, उसके सपनों और उसके संघर्ष को लफ्ज दिए हैं।
कथानक
यह अमृता प्रीतम की आत्मकथा है। उन्होंने इसमें देश के बंटवारे से दंश से लेकर पिता की उन पर लगाई गई पाबंदियां, मां की मौत से उपजे दर्द, प्रीतम सिंह के साथ अपने विफल वैवाहिक जीवन, साहिर और इमरोज के रूप में आए प्यार के साथ ही अपनी तमाम साहित्यिक यात्रा को समेटा है। साहिर और अमृता का रिश्ता मुलाकातों से शुरू हुआ तो खतों के सिलसिले में तब्दील हो गया। अमृता बाद में ताउम्र चित्रकार इमरोज के साथ रहीं लेकिन शादी किए बगैर। रसीदी टिकट में अमृता का प्यार है, विद्रोह है, उनके सपने हैं और एक ऐसी स्त्री का आत्मकथ्य है, जो समय से पहले ही एक आधुनिक समाज की रचना स्त्रियों के लिए कर गई थी।
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