धर्म और संस्कृति

श्रावण पुत्रदा एकादशी का क्या महत्व है? 2020 की तारीख?

श्रावण पुत्रदा एकादशी के महत्व के विषय में जानने से पहले हम यह जानते हैं, कि आखिरकार पुत्रदा एकादशी होती क्या है?

“पुत्रदा” शब्द का अर्थ है ‘पुत्र प्रदान करने वाला’। पुत्रदा एकादशी हिन्दू धर्म के अनुयायियों के लिए एक महत्वपूर्ण दिवस है। इसे पवित्रोपना एकादशी और पवित्रा एकादशी के नाम से भी जाना जाता है। खास बात तो यह है कि यह दो प्रकार की होती है। हिन्दू पंचांग के हिसाब से इनमें से एक श्रावण मास (जुलाई/अगस्त) में आती है और पौष (दिसंबर/ जनवरी) में आती है। जहां पौष पुत्रदा एकादशी भारत के उत्तरी राज्यों में प्रचलित है, वहीं दूसरी और ओर अन्य राज्यों में श्रावण पुत्रदा एकादशी अधिक प्रचलित है।

इसे श्रावण मास के शुक्ल पक्ष के ग्यारहवें दिन मनाया जाता है। ग्यारहवें दिन के कारण इसे एकादशी कहते हैं। आइए, अब “श्रावण” पुत्रदा एकादशी के महत्व के विषय में जानते हैं।

हमारे समाज में पुत्र की प्राप्ति को महत्वपूर्ण माना गया है। क्योंकि ऐसी मान्यता है  कि पुत्र द्वारा किए जाने वाले श्राद्ध से ही पूर्वजों की आत्मा को मोक्ष मिलता है। इसी कारण पुत्र पाने की इच्छा इतनी प्रबल होती है, कि लोग सिर्फ एक ही नहीं अपितु दोनों पुत्रदा एकादशी के व्रत का पालन करते हैं।

मूलतः  पुत्र को संतान के रूप में पाने की इच्छा रखने वाले निस्संतान दंपति इस व्रत का पालन करते हैं। इस दिन पति-पत्नी पूरे दिन उपवास रखते हैं एवं पुत्र की कामना करते हुए भगवान विष्णु की पूजा करते हैं।

पुत्र प्राप्ति ही इस व्रत का महत्वपूर्ण उद्देश्य है। इस वर्ष ३० जुलाई को श्रावण पुत्रदा एकादशी मनाई जाएगी। इस व्रत का वर्णन पद्म पुराण में भी किया गया है। इस व्रत का पालन करने से व्यक्ति केवल संतान सुख ही नहीं पाता, अपितु अन्य सभी प्रकार के सुखों को पाकर स्वर्गलोक की प्राप्ति करता है। इस व्रत का पालन करने से धन- धान्य के साथ- साथ ऐश्वर्य की प्राप्ति भी होती है। एवं आजीवन भगवान विष्णु की कृपा भी बनी रहती है। यह दिवस वैष्णवों यानी भगवान विष्णु के भक्तों के लिए काफी मायने रखता है।

श्रावण पुत्रदा एकादशी के महत्व के साथ-साथ अब इसके विषय में कुछ और भी तथ्य जान लेते हैं। पुत्रदा एकादशी के व्रत का पालन करने वाले व्यक्ति को दशमी के दिन प्याज़–लहसुन का परहेज करना चाहिए और शुद्ध निरामिष भोजन करना चाहिए।

साथ ही साथ इस दिन किस भी प्रकार का भोग–विलास भी नहीं करना चाहिए। सुबह स्नान आदि से निवृत्त होकर व्रत का पालन करना चाहिए। इस दिन विशेष रूप से भगवान विष्णु के बाल रूप की पूजा होती है। द्वादशी के दिन भगवान विष्णु को अर्घ्य देकर पूजा पूर्ण की जाती है। द्वादशी वाले दिन ब्राह्मणों को भोजन करवाने के पश्चात उनसे आशीर्वाद लेकर ही स्वयं भोजन करना चाहिए।

शिवांगी महाराणा

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