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भारतेन्दु हरिश्चंद्र: वे न होते तो शायद हिन्दी हमारी राष्ट्रभाषा नहीं होती

आज हिन्दी दिवस है। 14 सितंबर १९४९ को स्वतंत्र भारत के संविधान सभा ने निर्णय किया कि हिन्दी भारत की राजभाषा होगी। इसीलिए इस दिन, १४ सितंबर को हर वर्ष हिन्दी दिवस के रूप में मनाया जाता है। लेकिन यह कतई संभव नहीं हो पाता अगर उससे करीब १०० वर्ष पूर्व काशी के हरिश्चंद्र ने अपना जीवन हिन्दी की सेवा में समर्पित नहीं किया होता।

भारतेंदु हरिश्चंद्र का परिचय:

भारतेंदु हरिश्चंद का जन्म ९ सितम्बर सन १८५० को काशी में हुआ था। उस समय भारत में अंग्रेजों का राज्य था और अंग्रेजी भाषा का बोलबाला होने के कारण भारतीय संस्कृति एवं साहित्य की गरिमा विलुप्त होती जा रही थी। सारे सरकारी काम-काज अंग्रेजी में होते थे। ऐसे में भारतीय भी अंग्रेजी भाषा बोलने एवं समझने में अपनी शान मानते थे।

भारतेंदु हरिश्चंद्र के पिता उस समय के जाने-माने कवि थे। इनका घराना समृद्ध एवं सम्मानित था। भारतेंदु बचपन से ही विलक्षण प्रतिभा के धनी थे। किन्तु दस वर्ष की आयु होते-होते इनके सिर से माता-पिता दोनों का साया उठ चुका था।

अपनी विषम परिस्थितियों से हार न मानते हुए भारतेंदु हरिश्चंद्र ने अपना सम्पूर्ण जीवन हिदी साहित्य की सेवा में अर्पित कर दिया और अपने अथक परिश्रम एवं लगन से भारतीय संस्कृति की धोतक हिंदी साहित्य के संरक्षण में सफलता हासिल कर लिया। इसी कारण इन्हें विद्वानों द्वारा भारतेंदु की उपाधी से सम्मानित किया गया।

इन्होने हिंदी साहित्य की सेवा में अपनी पूंजी को मुक्त हस्त से लुटा दिया। इनकी मित्र मण्डली में उस समय के प्रख्यात विचारक, लेखक एवं कवि शामिल थे। भारतेंदु बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे; हिंदी नाटक, गद्य, कविता और पत्रकारिता के क्षेत्र में इनका योगदान अविस्मरनीय है। इसके अतिरिक्त, वे एक पत्रकार, वक्ता, निबंधकार एवं उत्कृष्ट कवि थे।

हिंदी साहित्य में खड़ी बोली में नाटक की शुरुआत का श्रेय भारतेंदु को जाता है। इन्होने हिंदी सहित्य को आधुनिक एवं परिष्कृत रूप प्रदान किया। इनकी मृत्यु ३५ वर्ष की अल्पायु में हो गई थी। इतनी छोटे जीवन काल में इन्होनें हिदी साहित्य में ७२ ग्रंथों की रचना कर हिंदी भाषा को नयी बुलंदियों पर पहुँचा दिया। हिंदी साहित्य को समृद्ध बनाने में इनके अद्भुत योगदान के कारण सन १८५०-१९००  के कालखण्ड को भारतेंदु युग के नाम से जाना जाता है।

 

भारतेंदु हरिश्चंद्र का साहित्यिक परिचय:

भारतेंदुजी ने हिंदी सहित्य में सभी विधाओं को नवीन एवं आधुनिक रूप प्रदान किया। आधुनिक अर्थात लौकिक जगत और तर्क पर आधारित विषय वस्तु को शामिल किया। इनसे पहले की हिंदी साहित्य की रचनायें पूर्णतया प्रेम, भक्ति एवं औलोकिक जगत पर आधारित होती थी। सामाजिक समस्याओं एवं तर्क से उसका कोई लेना-देना नहीं था।

युवा भारतेंदु को उस समय के समाज में अंग्रेजों के जुल्म, छुआछूत, अलगाववाद एवं जातिवाद की मजबूत होती जड़ें अखरती थीं। उन्होनें अपनी मण्डली के विद्वानों को अलौकिक जगत से हटकर समाज में फैली कुरीतियों एवं मानव तथा तर्क पर आधारित रचना लिखने को प्रोत्साहित किया। इस प्रकार उनके अथक प्रयास से हिदी साहित्य में नवीनता का समावेश संभव हो सका। इस कारण भारतेंदु जी को हिंदी साहित्य में नवीन विचारधारा का अग्रदूत भी कहा जाता है।

इस महान विभूति ने १५ वर्ष की उम्र से हीं हिंदी साहित्य की सेवा प्रारंभ कर दी थी। सन १८६८ में महज १८ वर्ष की आयु में उन्होंने ‘कविवचनसुधा’ नामक पत्रिका प्रकाशित की। जिसमें उस वक्त के बड़े-बड़े विद्वानों की कृतियाँ छपती थीं।

१८७३ में ‘हरिश्चंद्र मैगजीन’ एवं सन १८७४ में स्त्री शिक्षा को प्रोत्साहित करने के लिए ‘बाल बोधिनी’ नामक पत्रिका प्रकाशित को किया। इसके अतिरिक्त अनेक साहित्यिक संस्था की भी नींव डाली।

इन्होने हिंदी साहित्य के दायरे का चहुमुखी विकास किया। इनके लेखन में दोहा, चौपाई, हरिगीतिका, छंद, बरवे, कवित्त, सवैया आदि में उत्कृष्टता का परिचय मिलता है। इसके अतिरिक्त नाटक, निबंध, कविता एवं कहानी के क्षेत्र में अभूतपूर्व योगदान दिया। सुमित्रानंदन पन्त इनके हिंदी साहित्य में योगदान की प्रशंसा करते हुए लिखते हैं :

भारतेंदु कर गए,
भारती की वीणा निर्माण।
किया अमर स्पर्शों में,
जिसका बहुविधि स्वर संधान।

भारतेंदु ने हिन्दुस्तानी शैली को जन्म दिया:

भारतेंदु हरिश्चंद्र से पहले हिंदी भाषा शैली के दो रूप अपने चरम पर थे। एक राजा लक्ष्मनसिंह की संस्कृतनिष्ट भाषा शैली और दूसरी राजा शिवप्रताप ‘सितारेहिंद’ की फारसी मिश्रित हिदी भाषा शैली। दोनों हीं शैलियाँ आम बोलचाल की भाषा से अलग जटिलता की चरम को छू रहीं थीं।

भारतेंदु ने इन दोनों शैलियों में से कठिन शब्दों को निकालकर सरल खड़ी बोली को हिंदी सहित्य में शामिल किया। सन 1873 में अपनी पत्रिका ‘हरिशश्चंद्र मैगजीन’ में हिदी भाषा की नयी शैली खड़ी बोली को जन्म दिया। जिसे हिन्दुस्तानी शैली के रूप में जाना जाने लगा। किन्तु अपनी कविता में वे ब्रजभाषा का ही प्रयोग करते थे। इस तरह से भारतेंदु जी को हिंदी की खड़ी बोली का जन्मदाता भी कहते हैं।

भारतेंदु जी का नाटक और रंगमंच में योगदान :

भारतेंदु हरिश्चंद्र जी ने नाटक के क्षेत्र में विविधता को शामिल किया। इनसे पूर्व लिखे नाटक धार्मिक और भावनाओं पर आधारित होते थे। उन्होनें नाटक में सामाजिक, राजनैतिक, एतिहासिक और पौराणिक विषयों को शामिल किया। जिसके माध्यम से उन्होंने तार्किक चिन्तन एवं बौद्धिकता के प्रति समाज में जग्रोक्ता फैलाने की कोशिश की।

भारतेन्दु हरिश्चंद्र के नाटक अंधरे नागरी का भोपाल में मंचन

उन्होंने पहली बार हिंदी साहित्य में मौलिक नाटकों की रचना की। उनके प्रमुख नाटक हैं – भारत दुर्दशा, अंधेर नगरी, वैदिक हिंसा हिंसा न भवति, प्रेम योगिनी, मुद्रा राक्षस आदि। जिनका आज भी रंगमंच पर मंचन किया जाता है।

आपने कुल 17 नाटकों की रचना की, जिसमें मौलिक नाटक और अनुदित नाटक शामिल थे। भारतेंदु जी ने नाटको में पश्चिमी एवं पारसी प्रभाव के बीच हिंदी रंगमंच की जड़ें मजबूत करने में अभूतपूर्व योगदान दिया। जिसकी वजह से उन्हें हिंदी नाटक और रंगमंच के युगप्रवर्तक की उपाधि दी गई।

भारतेंदु जी की अद्वितीय काव्य रचना :

उनका मानना था कि भावनाओं को व्यक्त करने के लिए अपनी बोलचाल की भाषा शैली ही उपयुक्त होती है। चूँकि उस समय ब्रज भाषा का प्रचलन था और भारतेंदु हरिश्चंद्र की ब्रजभाषा में अच्छी पकड़ थी, इसलिए वे कविता लेखन में ब्रजभाषा का ही प्रयोग करते थे। उन्होंने अपने छोटे से जीवन काल में 48 प्रबंध काव्य, 21 काव्यग्रंथ एवं मुक्तक रच डाले थे।

उन्होंने हिंदी साहित्य में मौलिक नाटक, निबंध, पत्रकारिता, गध, पद्य आदि सभी विधाओं को शामिल कर कर उसे आधुनिक एवं परिष्कृत रूप प्रदान किया।

‘कुछ आपबीती कुछ जगबीती’ नामक उनकी उपन्यास की रचना उनकी असमय मृत्यु के कारण अधूरी रह गयी। जिसे उनके मृत्यु उपरान्त उनके मित्र श्रीनिवास दास ने पहला उपन्यास ‘परीक्षा गुरु’ के नाम से लिखकर पूरा किया।

आधुनिक हिन्दी के पितामह भारतेन्दु हरिश्चंद्र को आज ‘हिन्दी दिवस’ के दिन दसबस की ओर से शत-शत नमन। 

Ritu Soni

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