हमारे देश की कला और संस्कृति का अहम हिस्सा है कपड़ों पर की जाने वाली कढ़ाई। यहां कढ़ाई की बहुत सारी स्टाइल हैं, जो देश के अलग-अलग भागों से जुड़ी हैं और उस जगह विशेष की पहचान का हिस्सा बन चुकी हैं। रंग-बिरंगे धागे, मोतियों, कांच से कपड़ों को अलहदा बनाने वाली यह कला देश के साथ विदेश में भी खासी लोकप्रिय हो चुकी है। आइए जानते हैं हमारे देश में कितनी तरह की कढ़ाई कपड़ों पर की जा रही है…
१. चिकनकारी
शायद ही ऐसी कोई महिला होगी जिसने चिकन की साड़ी या कुर्ता न पहना हो। चिकनकारी नवाबों के शहर लखनऊ की पारंपरिक कढ़ाई है, जिसके बारे में माना जाता है कि इसकी शुरुआत मुगल बादशाह जहांगीर की बेगम नूरजहां ने 17वीं शताब्दी में की थी। चिकनकारी शब्द चकीन से बना है, जिसका फारसी में मतलब होता है कपड़े पर सुरुचिपूर्ण या सुंदर पैटर्न।
इन नाजुक कढ़ाई को यूं तो मलमल के कपड़े पर सफेद रंग के धागे से ही किया जाता है लेकिन अब आधुनिक समय में सफेद रंग के कपड़े के अलावा दूसरे रंगों का इस्तेमाल भी होने लगा है, हां कढ़ाई का धागा अब भी सफेद ही रखा जाता है। शिफॉन, ऑरगेंजा, सूती, सिल्क, जॉर्जट, सेमी जॉर्जट आदि पतले कपड़ों पर इस कढ़ाई की मदद से फूलों के मोटिफ उभारे जाते हैं, जिसमें गुलाब, कमल, चमेली, विभिन्न लताएं शामिल है। इन रूपांकनों की मदद से कढ़ाई का एक जाल तैयार किया जाता है। इन दिनों इस कढ़ाई को रिच लुक देने के लिए इस पर तारे और मोतियों का काम भी किया जाने लगा है।
२. कांथा कढ़ाई
कांथा कढ़ाई देखने में जितनी साधारण लगती है, उतनी ही दिलकश भी। यह कढ़ाई पारंपरिक रूप से बंगाल, बिहार और ओडिशा में की जाती है। कांथा कढ़ाई का एक नाम नक्श भी है। इसका एक और नाम डोरुखा भी है, जिसका अर्थ है घिसे हुए कपड़े को खूबसूरत कपड़े में बदलना। इसलिए इसे रिसाइक्लिंग की एक कला भी माना जाता है।
कहा जाता है कि भगवान बुद्ध फटे हुए कपड़ों को इस कढ़ाई के इस्तेमाल से खुद के पहनने लायक बनाते थे। इस कढ़ाई की खास बात यह होती है कि यह कपड़े के आगे और पीछे, एक सी दिखाई देती है। इसलिए कपड़े का इस्तेमाल भी दोनों तरफ से किया जा सकता है। पारंपरिक रूप से बंगाल की महिलाएं कांथा कढ़ाई केवल साड़ी और धोती पर करती रही हैं, जिसमें धागा भी कपड़े की किनारियों से निकाला जाता हैं। वह इसमें चिडिय़ा, जानवर, फूल, ज्यामितीय आकृतियों और आम जीवन की झलक उकेरती हैं। आज कांथा कढ़ाई का इस्तेमाल साडिय़ों, दुपट्टा, शर्ट, चादर, बैग्स आदि बनाने में भी हो रहा है।
३. फुलकारी
सरसों के साग के बाद पंजाब की कोई चीज शायद सबसे ज्यादा प्रसिद्ध है तो वह फुलकारी कढ़ाई। फुलकारी में फूलों के बेहद सुंदर मोटिफ होते हैं और इसीलिए इसे फुलकारी कहा जाता है। इसकी शुरुआत 15वीं शताब्दी में महाराजा रंजीत सिंह के काल में हुई थी। माना जाता है कि इस कढ़ाई का आविष्कार उस समय की महिलाओं ने अपने खाली समय को बिताने के लिए किया था।
फुलकारी की सबसे बड़ी खासियत यह होती है कि इसे कपड़े के उल्टी ओर किया जाता है, जिससे कपड़े के आगे की ओर सुंदर डिजाइन उभर कर आता है। फुलकारी में अक्सर खादी के हल्के रंग के कपड़े का इस्तेमाल होता है, जिस पर गहरे रंग के सिल्क या साटिन के धागों से कढ़ाई की जाती है।
४. जरदोजी
आज भी भारी साड़ियों की सबसे पसंदीदा कढ़ाई जरदोजी असल में फारस की कला है। मुगलों के समय में जरदोजी का इस्तेमाल शाही परिवार के वस्त्र बनाने में होता था और वही फारस से इसे भारत में लेकर आए थे।
जरदोजी शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है, जर और दोजी। फारसी में जर का मतलब सोना और दोजी का मतलब कढ़ाई होता है। मूल रूप में जरदोजी के काम में सोने और चांदी के तारों के साथ-साथ असली मोती और रत्नों का इस्तेमाल होता था, लेकिन इन दिनों सूती धागे के चारों ओर धातु का तार लपेट कर भी जरदोजी की कढ़ाई होने लगी है। जबकि बहुत सारे कलाकार पतले तार(बदला) के चारों ओर स्प्रिंगनुमा तार(कसाव)का ही इस्तेमाल करते हैं, बस यह सोने-चांदी की बजाय आम धातु होती है।। शुरुआत में इसे केवल वेलवेट, शनील या महंगे सिल्क पर ही इस्तेमाल किया जाता था लेकिन अब कीमत घटाने के लिए यह सूती और आर्ट सिल्क पर भी होने लगी है।
५. कच्छ कढ़ाई(मिरर वर्क)
गुजरात की यह कढ़ाई धागे और कांच का कमाल का काम है। बहुत सारी कढ़ाई की कला की तरह यह भी फारस में13वीं शताब्दी में विकसित हुई थी। लड़कियों और महिलाओं की पहली पसंद इस कढ़ाई को आमतौर पर सूती कपड़े पर रंग-बिरंगे सूती या रेशम के धागों से किया जाता है।
कांच का काम इस कढ़ाई को बेमिसाल बनाता है। कांच अलग-अलग आकार के होते हैं। कच्छ कढ़ाई के लहंगे, कोटी, ब्लाउज, दुपट्टे हर महिला पसंद करती है। इन दिनों इससे बैग्स, होम डेकोर के आइटम्स भी बनने लगे हैं। वैसे गुजरात के अलावा राजस्थान में इस तरह की कढ़ाई का काम होता है। आज कच्छ कढ़ाई की मांग देश के साथ ही विदेशों में भी बहुत है।
६. कश्मीरी कढ़ाई
कशीदाकारी या कश्मीरी कढ़ाई का विकास मुगलों के समय हुआ और यह प्रकृति से बहुत अधिक प्रेरित है। इसमें सूती, सिल्क या ऊनी कपड़े पर चिडिय़ा, फूलों, पेड़ों, लताओं आदि को बेहद खूबसूरत तरीके से उकेरा जाता है। इसमें धागों का रंग कश्मीरी फूलों के रंग से प्रेरित है। यह कढ़ाई इस तरह से की जाती है कि कपड़े को उल्टा या सीधा, दोनों तरफ से पहना जा सकता है। पूरी कढ़ाई में केवल एक या दो स्टिच का ही इस्तेमाल होता है। बटन, कॉलर और जेब पर इस कढ़ाई को ज्यादा किया जाता है। धागों के अलावा पश्मीना(ऊन) और चमड़े के धागे का इस्तेमाल भी कश्मीरी कढ़ाई में होता है। कश्मीरी कढ़ाई से बने फिरन और नमदा तो बेहद लोकप्रिय हैं।
७. चंबा कढ़ाई
अगर आप कभी हिमाचल घूमने गए होंगे तो आपने चंबा रूमाल जरूर खरीदा होगा। हिमाचल की पहचान चंबा कढ़ाई को रूमाल पर रंग-बिरंगे धागों के इस्तेमाल किया जाता है, इसलिए इसे चंबा रूमाल कढ़ाई भी जाता है। इस कढ़ाई की शुरुआत तत्कालीन चंबा साम्राज्य के कांगड़ा राज्य में हुई था, इसलिए इसका नाम चंबा कढ़ाई पड़ गया। इस कढ़ाई में चटकीले रंगों का इस्तेमाल बेहद करीने के साथ किया जाता है। आमतौर रामायण और महाभारत के दृश्यों, राधा-कृष्ण की रासलीला को कढ़ाई के जरिये उकेरा जाता है। इसमें रेशम के धागों को टसर सिल्क या बहुत ही महीन सूती कपड़े पर काढ़ा जाता है। स्थानीय लोग इससे बने रूमाल को शादी या दूसरे खास मौके पर देना पसंद करते हैं।
8. टोडा कढ़ाई
टोडा कढ़ाई की शुरुआत तमिलनाडु के नीलगिरी की पहाडिय़ों में हुई थी। इसे स्थानीय टोडा समुदाय की महिलाएं करती हैं, इसलिए इसका नाम टोडा कढ़ाई पड़ गया। पहले यह केवल शॉल पर हुआ करती थी लेकिन अब हैंडबैंग्स, बैडशीट्स और यहां तक कि साडिय़ों पर भी होने लगी है। टोडा समुदाय भैंस की पूजा करता है, इसलिए वे ज्यादातर भैंस को कपड़े पर बनाते हैं। भैंस के अलावा अलग-अलग आकार के चांद, सूरज और दूसरे तारों को भी कढ़ाई के जरिए साकार करते हैं।
९. कसूती कढ़ाई
कर्नाटक के धारवाड़ में कसूती कढ़ाई की जाती है, जिसमें एक ही धागे की मदद से हैंडलूम की साडिय़ों को काढ़ कर खूबसूरत बनाया जाता है। इसके मोटिफ्ट में मंदिर, मोर, हाथी, फूल वाले पेड़ या ज्यामितीय संरचनाएं शामिल हैं।
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